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अष्टसहस्री
[ कारिका १० सद्विषयः, स न सत्प्रत्ययविलक्षणो, यथा सद्व्यमित्यादिप्रत्ययः, सत्प्रत्ययविलक्षणश्चायं, तस्मादसद्विषयः' इत्यनुमान प्रागभावस्य ग्राहकमिति चेन्न', प्रागभावादौ नास्ति प्रध्वंसाभावादिरिति प्रत्ययेन व्यभिचारात् । तस्याप्यसद्विषयत्वान्न दोष इति चेन्न, अभावानवस्थाप्रसङ्गात् । 'स्यान्मतं, भावे भूभागादौ नास्ति कुम्भादिरिति प्रत्ययो मुख्याभावविषयः प्रागभावादौ10 नास्ति 11प्रध्वंसादिरित्युपचरिताभावविषयः12 । ततो नाभावानव
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भावार्थ-"प्रागभावादि में प्रध्वंसाभावादि नहीं है" इसका भाव यह है कि प्रागभाव जुदा है और प्रध्वंसाभाव जुदा है। अब दोनों के पृथकपने को विषय करने वाले ज्ञान का विषय इतरेतराभाव होगा क्योंकि इतरेतराभाव से ही एक दूसरे में एक दूसरे का अभाव प्रख्यापित किया जाता है । पुनः ऐसी स्थिति में इस प्रत्यय को विषयभूत करने वाला जो इतरेतराभाव है वह प्रागभाव से भिन्न है इस प्रकार इतरेतराभाव ने प्रागभाव एवं प्रध्वंसाभाव को भिन्न कर दिया उसी प्रकार यह इतरेतराभाव भी अपने आप को प्रागभावादि से भिन्न करने के लिये अन्य दूसरे इतरेतराभाव की अपेक्षा रखेगा एवं दूसरा तीसरे की, तीसरा चौथे की इत्यादि रूप से अनवस्था दोष आ जावेगा।
योग-भूतल आदि के सद्भाव में कुम्भादि नहीं हैं इस प्रकार का ज्ञान मुख्य अभाव को विषय करने वाला है । पुनः प्रागभावादि में प्रध्वंसाभावादि नहीं हैं यह प्रत्यय उपचरित-अभाव को विषय करने वाला है। अतः अभाव में अनवस्थादि दोष नहीं आते हैं।
चार्वाक-यह कथन भी अयुत्त । तब तो प्रागभावादि में परमार्थरूप से संकर दोष का प्रसङ्ग आ जाता है क्योंकि उपचरित अभाव के द्वारा चारों ही अभावों में परस्पर में व्यतिरेक-भिन्नपना सिद्ध नहीं हो सकता है अन्यथा सभी जगह मुख्य-अभाव की कल्पना भी व्यर्थ ही हो जावेगी । अर्थात् मुख्य अभाव-इतरेतराभाव आदि के न होने से सभी घट पटादि में एकत्व सिद्ध हो जावेगा और भी जो आप यौगों ने कहा है कि "प्रागभावादि भावस्वभाव नहीं है क्योंकि सर्वदा भाव-पदार्थ के विशेषण होते हैं।" अर्थात् घट का प्रागभाव, पट का प्रागभाव आदि भावरूप पदार्थ के विशेषण हैं। आपका यह अनुमान भी सम्यक् नहीं है क्योंकि आपका हेतु पक्ष में अव्यापक दोष से दूषित है। "प्रध्वंसादि में प्रागभाव नहीं है" इत्यादिरूप से यह अभाव अभाव का भी विशेषण है। यह बात प्रसिद्ध ही है और गुणादि से भी व्यभिचार आता है क्योंकि वे गुणादि सर्वदा भाव के विशेषण होने पर
पापा
1 चार्वाकः। 2 प्रागभावादी नास्ति प्रध्वंसादिरिति प्रत्ययस्य प्रध्वंसाभावाभावरूपतया सद्विषयत्वेपि सत्प्रत्ययविलक्षणत्वादित्ययं हेतुरत्र वर्तते यतः। 3 सत्प्रत्ययविलक्षणत्वेपि प्रागभावादावसद्विषयत्वं नास्ति यतः । 4 योगः सत्प्रत्ययविलक्षणत्त्वादिति हेतोरभावविषयत्त्वाद्दोषो न। (दि० प्र०) 5 अभावग्राहकत्वात् । 6 पञ्चमस्याभावस्याभावचतुष्टयाद्वयावृत्ताऽभावान्तरपरिकल्पनानुषङ्गात् । प्रागभावादी नास्ति प्रध्वंसादिरिति प्रत्ययस्याभावविषयत्वे सोप्यभावः प्रकृते (प्रागभावे) नास्तीति प्रत्ययेनासद्विषयेण व्यावर्तयितव्य इत्यनवस्था। 7 योगस्य । 8 अन्ते वर्तमानस्याभावस्यैव मुख्यत्त्वं । (दि० प्र०) 9 प्रत्ययः । (दि० प्र०) 10 अभावेऽभावसमारोपणं उपचरितत्त्वम् । (दि० प्र०) 11 इति, प्रत्ययः । 12 प्रागभावादौ प्रध्वंसाभावादिरूपचरितः ।
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