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अष्टसहस्री
[ कारिका ७ चतुर्थ प्रश्न के उत्तर में आत्मा चेतन स्वभाव वाला है यह बात स्वसंवेदन प्रत्यय से सिद्ध है क्योंकि स्वयं चेतनत्व के अभाव में चेतना विशेष का समवाय सम्बन्ध सम्भव नहीं है कारण कि चेतना समवाय के पहले आत्मा चेतन है या अचेतन ? यदि अचेतन है तो उसमें ही चेतनत्व का समवाय क्यों ? आकाश में क्यों नहीं है ? यदि चेतन है तो उस चेतन में चेतना का समवाय क्या हुआ ? अतः कथंचित तादात्म्य को छोड़कर समवाय कोई चीज नहीं है।
जो पाँचवां प्रश्न है उसके समाधान में आचार्य कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान में वर्ण संस्थान आदि के आकार नहीं दीख सकेंगे क्योंकि स्कन्धों के बिना वर्णों की उपलब्धि नहीं पाई जाती है।
इस पर यदि आप कहें कि अवयवी स्कन्ध निर्विकल्पप्रत्यक्ष में अपना समर्पण नहीं करता है और प्रत्यक्ष का विषय बनना चाहता है अतः यह अमूल्य दानक्रयी है।
___ आपका उपर्युक्त कथन भी असंगत है, क्योंकि प्रत्यासन्न और परस्पर में असंबद्ध परमाणु भिन्नभिन्नरूप से किसी भी मनुष्य को किसी काल में भी नहीं दीखते हैं, प्रत्युत स्कन्ध ही स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान में झलकते हैं। सभी स्कन्ध प्रत्यक्ष भी नहीं हैं कुछ-कुछ स्कन्ध चक्षु इन्द्रिय आदि के विषय हैं एवं कोई अचाक्षुष हैं अतः ये स्कन्ध प्रत्यक्ष ज्ञान में आत्मसमर्पण करते हैं इसलिये अमूल्यदानक्रयी नहीं हैं प्रत्युत परमाणु ही अमूल्यदानक्रयी हैं।
अनन्तर अब छठे प्रश्न का उत्तर देते हुये कहते हैं कि सांख्य ने स्कंध ही माना है परमाणुओं को सर्वथा नहीं माना है। इस मान्यता में भी सत्ताद्वैतवादी का प्रसंग आ जावेगा। हम कह सकते हैं कि सत्ता एक ही है उस सत्ता से भिन्न द्रव्यादि | गुणादि कोई चीज नहीं है, कल्पना के भेद से ही भेद का प्रतिभास होता है किन्तु यह मान्यता ठीक तो है नहीं, अतएव सुखादि स्वरूप चैतन्य की एवं वर्ण, संस्थान मादि स्वरूप स्कंध की भी सिद्धि हो रही है।
अतएव श्री भट्टाकलंकदेव ने ठीक ही कहा है कि कोई भी वस्तु रूपान्तर से रहित सत् एकांतरूप, या असत् एकांतरूप, नित्यकान्त अथवा अनित्यकांतरूप, अद्वैतकांत या द्वैतकांतरूप, ज्ञानरूप, अंतरंग तत्त्व या बाह्य पदार्थरूप ही हम लोगों के दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। प्रत्युत सामान्य-विशेषात्मकरूप अनेकांत वस्तु ही ज्ञान गोचर है । अतएव एकांत तत्त्व की अनुपलब्धि ही उस अनाहत कल्पना को अस्त कर देती है इसलिये सभी एकांत शासन प्रत्यक्षादि से बाधित ही हैं। .. अथवा अनेकांत की उपलब्धि ही एकांत का अभाव सिद्ध कर देती है।
उपसंहार--ज्ञानाद्वैतवादी, चित्राद्वैतवादी, बौद्ध, सांख्य, योग आदि अपनी-अपनी एकॉत मान्यता को कह चुके हैं । जैनाचार्यों ने उन सबका खंडन करके यह सिद्ध किया है कि वस्तु एकांतरूप से उपलब्ध ही नहीं है अथवा वस्तु सर्वत्र अनेकांतरूप ही उपलब्ध हो रही है। इसी कथन पर बौद्ध ने वचनाधिक्य दोष देकर पराजय करना चाहा था उसका आगे के सार में विशद वर्णन है।
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