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अष्टसहस्री
[ कारिका
संबन्धसद्भावाद्, घटाभावविशिष्टं भूतलं गृह्णामीति प्रत्ययादिति चेत्न, 'तस्य भूतलादिभावविषयत्वात् । अभावदृष्टौ हि तदवसानकारणाभावाद्भावदर्शनमनवसरं प्राप्नोति *,
[ ब्रह्माद्वैतवादी प्रत्यक्षप्रमाणं भावपदार्थग्राहकमेव साधयति तस्य विचारः ] क्रमतोनन्तपररूपाभावप्रतिपत्तावेवोपक्षीणशक्तिकत्वप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षस्य क्वचित्प्रतिपत्ता स्मर्यमाणस्य घटस्याभावप्रतिपत्तौ 'तदपररूपस्यानन्तस्यास्मर्यमाणत्वं भावदर्शनावसरकारणमिति चेन्न, प्रत्यक्षस्य स्मरणानपेक्षत्वात्, "तस्य स्मृत्यपेक्षायामपूर्वार्थ
योग-प्रत्यक्षप्रमाण अभाव को विषय करने वाला है ही क्योंकि वह अभाव इंद्रियों से संयुक्त विशेषण सम्बन्ध के सद्भाव को ग्रहण करता है। "घट के अभाव से विशिष्ट भूतल को ग्रहण करता हूँ" इस प्रकार का ज्ञान पाया जाता है। अर्थात् भूतल इंद्रियों से संयुक्त है उस भूतल में घटाभाव है इस प्रकार के विशेषण रूप सम्बन्ध का सद्भाव है।
[ ब्रह्माद्वैतवादी प्रत्यक्षप्रमाण को भावपदार्थ का ग्रहण करने वाला ही सिद्ध करते हैं उस पर विचार ]
ब्रह्माद्वैती-नहीं, प्रत्यक्ष ने तो भूतलादिभाव को ही विषय किया है न कि अभाव को । और यदि प्रत्यक्ष के द्वारा अभाव का देखना स्वीकार करोगे तब तो उसके अवसान-समाप्ति के कारणों का अभाव होने से प्रत्यक्ष को भावरूप पदार्थों के देखने का अवसर ही नहीं मिलेगा। क्योंकि कम से अनन्त पररूप अभाव को जानने में ही इस प्रत्यक्ष की शक्ति क्षीण हो जावेगी। पुनः वस्तु के सद्भाव को कैसे जानेगा ?
भावार्थ-कोई मनुष्य कमरे में प्रवेश करके वहाँ घड़े के अभाव को प्रत्यक्षज्ञान से देखकर घड़े के अभाव को जानता है पुनः वहाँ कमरे में मेज, कुर्सी आदि अनेक पदार्थों का अभाव है वह प्रत्यक्षज्ञान सभी अनन्त पदार्थों के अभाव को ही जानता हुआ बैठेगा। वहाँ कमरे में शुद्ध भूतल है या पुस्तकें हैं इत्यादि सद्भावरूप पदार्थों को कब जानेगा? क्योंकि उसकी शक्ति तो अभाव पदार्थ को जानने में ही समाप्त हो जावेगी।
योग-प्रत्यक्षप्रमाण किसी देश में ज्ञाता के द्वारा स्मरण किये गये घट के अभाव को जानेगा पुमः अन्य-अन्य अनन्त अपररूप जो कि ज्ञाता के द्वारा स्मर्यमाण (स्मरण किये गये) नहीं हैं उनको नहीं जानेगा। अतएव भाव सद्भाव रूप पदार्थों के जानने का अवसर उसे मिल ही जावेगा।
1 भाववाद्याह । यदुक्तमभाववादिना तन्न कुतः प्रत्यक्षं भूतलादि तद्भावमेव गृह्णाति यतः । अभावग्रहणे तेषामभावानामनन्तानां समाप्तिकारणाऽभावात् भावदर्शनं ग्रहणावसरं न लभते । पुनः कुतः क्रमेण अनन्तरूपाऽभावानां ग्रहणेऽसमर्थत्वमायाति प्रत्यक्षस्य यतः । (दि० प्र०) 2 ब्रह्माद्वैती ब्रूते, अभावदृष्टी प्रत्यक्षेणाङ्गीक्रियमाणायाम् । 3 अभावः । परिसमाप्तिः । (दि० प्र०) 4 आह योगः। 5 देशे। 6 सत्याम् । (दि० प्र०) 7 तस्मात्, घटादिभूतलादेः। 8 तस्मात् स्मर्यमाणघटादपरलक्षणस्यानन्तस्य प्रयोजनाऽभावात् । अस्मर्यमाणत्वमेव भावदर्शनस्यावसरकारणमस्तीति चेत् । अभाववादिना व्यवस्थापितम् । (दि० प्र०) 9 प्रत्यक्षमात्रस्येत्यर्थः। 10 प्रत्यक्षस्य । (दि० प्र०)
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