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भाव एकान्त का निरास ] प्रथम परिच्छेद
[ ६३ मितिरित्यपि मिथ्या, तस्या' अपि निरुपाख्यत्वे क्वचित्प्रमितिजननासंभवात्, आत्मनः सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकरूपत्वेनापरिणामस्य प्रसज्यप्रतिषेधरूपस्य प्रमाणत्वविरोधात् । यदि पुनरन्यवस्तुविज्ञानरूपा' 10तन्निवृत्तिस्तदा न "ततो निरुपाख्यस्य प्रमितिः, वस्त्वन्तररूपस्यवाभावस्य सिद्धः । न च प्रकारान्तरमस्ति किञ्चित् । इति कुतस्तत्प्रमितिः ?
भावार्थ-नञ् समास के दो अर्थ हैं (१) पर्युदास निषेध (२) प्रसज्य निषेध । सदृश को ग्रहण करने वाला पर्युदास है और सर्वथा निषेध को करने वाला प्रसज्य है। यथा-"अब्राह्मणमानय" कहने पर 'ब्राह्मण के सदृश को' यह अर्थ "पर्युदास" निषेध कहलावेगा एवं सर्वथा निषेध को ही कहने वाला "प्रसज्य" कहलावेगा। यहाँ अभाव का अर्थ प्रसज्य प्रतिषेध नहीं करना ।
यदि पुनः अन्य वस्तु के विज्ञानरूप उन प्रमाणपञ्चक का अभाव है तब तो उस अन्य वस्तु के विज्ञान से तुच्छाभावरूप ज्ञान नहीं हुआ, प्रत्युत वह अभाव तो वस्त्वन्तररूप ही सिद्ध हो गया। अर्थात् घट से भिन्न भूतलरूप जो अन्य वस्तु का विज्ञान है वह घट के अभावरूप है । उस भूतललक्षण अन्य वस्तु के ज्ञान से तुच्छाभाव का ज्ञान नहीं होता है क्योंकि अभाव तो वस्त्वन्तररूप है और अन्य कोई प्रकार है ही नहीं । इसलिये किस प्रमाण से उस तुच्छाभावरूप अभाव की प्रमिति होगी ? ___ भावार्थ-सांख्य अभाव पदार्थों को स्वीकार न करके मात्र सभी पदार्थों को भावस्वरूप ही स्वीकार करता है। इस पर जैनाचार्यों ने सांख्य के सामने यह दूषण उपस्थित किया है कि प्रागभाव आदि अभावों के माने बिना प्रकृति पुरुष आदि सब एकरूप हो जावेंगे। पुनश्च हमें इसमें कोई विरोध नहीं है । हम तो स्वयं सम्पूर्ण विश्व को प्रधानात्मक मानते हैं।
इस पर जैनाचार्य ने कहा कि तब तो प्रकृति और पुरुष दोनों भी एकरूप हो जावेंगे और सत्ताद्वैतवाद का भी प्रसंग आ जावेगा। इस पर सत्ताद्वैतवादी बहुत ही प्रसन्न होकर सामने आता है और सांख्य बंधु की सहायता करते हुये कहता है कि भाई ! बात बिल्कुल ठीक है, वास्तव में अभाव नाम की कोई चीज है ही नहीं। देखो! प्रत्यक्ष प्रमाण भी अभाव को ग्रहण नहीं कर सकता है अतएव अभाव को मानना बिल्कुल ही गलत है। अब आगे इस बात पर जैनाचार्य विचार करेंगे। ध्यान रहे ये सांख्य और अद्वैतवादी केवल भावैकान्तवादी ही हैं।
1 सदुपलंभकप्रमाणपञ्चकनिवृत्तेरपि । (दि० प्र०) 2 निःस्वभावत्वे। 3 अभावे। 4 पुरुषस्य । 5 अभावस्य । 6 द्वौ नौ तु समाख्यातौ पर्युदासप्रसज्यको । पर्युदासः सदृग्ग्राही प्रसज्यस्तु निषेधकृत् ।१। यथा अब्राह्मणमानयेत्यस्य ब्राह्मणसदृशमानयेत्यर्थः पर्युदासे । प्रसज्ये तु सर्वथा निषेध एव भवति । 7 आत्मनोऽपरिणामः केन प्रमाणेन गृह्यते ? न केनापि । लोके परिणाम एव दृश्यते, यथा मृत्पिण्डस्याभावो घटोत्पादः, तथा परिणमनस्वभावत्वात् । 8 यथा घटादन्यद्भूतलम् । 9 प्रधानत्वं विधेर्यत्र प्रतिषेधे प्रधानता । पर्युदासः सविज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नञ् । अप्राधान्यं विधेर्यत्रप्रतिषेधे प्रधानता । प्रसज्य प्रतिषेधोयं क्रियया सह यत्र नञ् । (दि० प्र०) 10 घटनिवृत्तिः। 11 भूतललक्षणान्यवस्तुविज्ञानात् । 12 भूतललक्षणस्य । (ब्या० प्र०)
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