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भाव एकान्त का निरास ] प्रथम परिच्छेद
[ ८९ साक्षात्कारित्वविरोधात् । भावप्रत्यक्षं2 किञ्चित्तु स्मरणनिरपेक्षं योगिप्रत्यक्षवत् । किञ्चित्तु स्मरणापेक्षं 'सुखादिसाधनार्थव्यवसायवत् । क्वचिदभावप्रत्यक्षं स्मरणनिरपेक्षं, योगिनोऽभावप्रत्यक्षं यथा । 'क्वचिदभावप्रत्यक्षं पुन: 'प्रतिषेध्यस्मरणापेक्षमेव, तथा प्रतीतेः । इति चेन्न, स्मरणापेक्षस्य विकल्पज्ञानस्य 1 प्रत्यक्षत्वविरोधादनुमानादिवत् ।
भावार्थ-किसी ने किसी दिन कमरे में घड़ा देखा था आज उस कमरे में आया और पुनः घट को नहीं देखकर उसका स्मरण करता है अतः उस व्यक्ति का प्रत्यक्ष उस घट के अभाव को जान लेता है किन्तु अनन्त पदार्थों का वहाँ अभाव होते हुये भी उनका स्मरण तो वह व्यक्ति करता नहीं है अतः उन अनन्त अभावरूप पदार्थों को जानने में उसकी शक्ति लगती ही नहीं है पुनः वह शुद्ध भूतल के सद्भाव आदिरूप से वस्तु के सद्भाव को भी ग्रहण कर लेता है ।
ब्रह्माद्वैती-आप ऐसा नहीं कह सकते हैं क्योंकि प्रत्यक्षज्ञान स्मरण की अपेक्षा नहीं रखता है और यदि प्रत्यक्षज्ञान भी स्मृति की अपेक्षा रखता है ऐसा स्वीकार करो तब तो यह अपूर्वार्थ का साक्षात्कारी है यह कथन विरुद्ध हो जावेगा।
योग-कोई भाव प्रत्यक्ष तो स्मृति निरपेक्ष है योगी प्रत्यक्ष के समान और पुनः कोई भाव प्रत्यक्ष स्मृति की अपेक्षा रखता है जैसे सुखादि साधन के लिये अर्थ व्यवसाय । वैसे ही कहीं पर अभाव प्रत्यक्ष भी स्मृति निरपेक्ष है जैसे कि योगियों का अभाव प्रत्यक्ष । तथैव पुनः कहीं पर अभाव प्रत्यक्ष प्रतिषेध करने योग्य स्मरण की अपेक्षा भी रखता है क्योंकि उस प्रकार की प्रतीति होती है।
भावार्थ-प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-(१) सद्भाव रूप पदार्थ को ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष । (२) अभाव रूप पदार्थ को ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष । पुन: भावग्राही प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं(१) स्मृति निरपेक्ष, (२) स्मति सापेक्ष । तथैव अभावग्राही प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-(१) स्मति निरपेक्ष, (२) स्मति सापेक्ष । स्मति निरपेक्ष भाव प्रत्यक्ष एवं स्मति निरपेक्ष अभाव प्रत्यक्ष ये दोनों ज्ञान तो योगियों के पाये जाते हैं एवं स्मृति सापेक्ष दोनों ज्ञान हम और आप जैसे साधारण लोगों में पाये जाते हैं। जैसे—सद्भावग्राही प्रत्यक्ष से सुखादि को साधनभूत वस्तु को देखकर और
1 योग: प्राह, पदार्थप्रत्यक्षं द्विधा । अभावप्रत्यक्षमपि द्विधा। 2 अर्थः । भावस्य पदार्थस्य ग्राहक प्रत्यक्षम् । (दि० प्र०) 3 भावप्रत्यक्षम् । 4 सुखादिसाधनं वस्तु दृष्ट्वा पूर्वानुभूतसुखसाधनत्वं स्मृत्वा इदं वनितादिकं सुखसाधनमिति प्रत्ययः प्रत्यक्षज्ञानं यथा भवति। 5 इदमाहारादिकं मम सुखसाधनार्थं विषादिकं दुःखसाधनाथं भवतीति निश्चयवत् । (दि० प्र०) 6 क्वचिदभावप्रत्यक्षं स्मरणनिरपेक्षं योगिनोऽभावप्रत्यक्षं यथा। (दि० प्र०, ब्या० प्र०) 7 भूतलादी। 8 घटाभावस्य ग्राहकं प्रत्यक्षम् । (दि० प्र०) 9 घट: । (ब्या० प्र०) 10 ब्रह्माद्वैती । 11 सुखसाधनभूतं वनितादिकं वस्तु दृष्ट्वा पूर्वानुभूतसुखसाधनत्त्वं स्मृत्वा इदं वनितादिकं सुखसाधनमिति प्रत्ययः प्रत्यभिज्ञानमेव ननु प्रत्यक्षभूतम् । भूतलं दृष्ट्वा घटं स्मृत्वाऽत्र घटो नास्तीति ज्ञानमपि प्रत्यभिज्ञानमेव न तु प्रत्यक्षमिति भावः । तथा च प्रमेयकमलमार्तण्डे द्वितीयपरिच्छेदे इतरेतराभावनिराकरणप्रघट्टके प्रतिपादितम् । भूतलसंसृष्टघटदर्शनाहितसंस्कारस्य च पुनर्घटासंसृष्टभूभागदर्शनानन्तरं तथाविध घटस्मरणे सति । अस्यात्राभाव इति प्रतिपत्तिः प्रत्यभिज्ञानमेवेति । (दि० प्र०)
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