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भावएकान्त का निरास ]
प्रथम परिच्छेद
[ ७७
इति वचनात् । तेषामस्तित्वमेवेति निश्चयो भावैकान्तः । तस्मिन्नभ्युपगम्यमाने 'सर्वेषामितरेतराभावादीनामभावानामपन्हवः स्यात् । ततः सर्वात्मकत्वादिप्रसङ्गः ।
जावेगा फिर तो अपने दादा, पड़दादा, आदि सभी बुजुर्ग अनन्त पीढ़ी वाले विद्यमान ही दीखेंगे एवं संसारी आत्मा के भी संसार अवस्था का प्रध्वंस न होने से कभी भी किसी को मुक्ति नहीं मिल सकेगी किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता है ।
तथैव इतरेतराभाव - एक पर्याय में दूसरी पर्याय का अभाव । मनुष्य पर्याय में देव पर्याय का अभाव है, घट में पट का अभाव, चौकी में घड़ी, पुस्तक आदि का अभाव है यदि इसे नहीं माना जावेगा तो किसी की मनुष्य पर्याय में देव पर्याय, नारक पर्याय तिर्यंचपर्याय सभी पर्यायें दिखने लगेंगी तब तो उस मनुष्य का नरसिंह से भी अधिक भयंकररूप दीखने लगेगा एवं सभी वस्तुयें सर्वात्मक- सबरूप हो जावेंगी ।
संसारावस्था में भी मनुष्य पर्याय में सिद्धत्व पर्याय भी प्रगट हो जावेगी अथवा मुक्त जीव में मनुष्य पर्याय देव पर्याय प्रगट हो जावेगी किन्तु ऐसा है नहीं ।
उसी प्रकार से अत्यन्त - परिपूर्णरूप से एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अभाव अत्यन्ताभाव कहलाता है जैसे संसारावस्था में जीव के साथ कर्मरूप पुद्गलों का संबंध तो है किन्तु यह जीव कभी भी पुद्गल जड़रूप नहीं बनता है। पुद्गल भी जीव के साथ एक क्षेत्रावगाही - दूध और पानी के समान एकमेक होकर भी चैतन्य अवस्था को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता है । यदि इस अत्यन्ताभाव को न माना जावे तो किसी भी द्रव्य का कुछ निजीस्वरूप सिद्ध नहीं होगा एवं किसी भी मतावलम्बी का कोई निजी तत्त्व-सिद्धान्त सिद्ध नहीं होगा फिर तो जीव, पुद्गल आदि छहों द्रव्यों में खिचड़ी हो जावेगी एवं सांख्य के सिद्धान्त में जैन, बौद्ध, वैशेषिक, चार्वाक सिद्धान्त बलात् प्रवेश कर जावेंगे पुनः सभी के सभी तत्त्व एकमेक खिचड़ी बन जायेंगे किसी द्रव्य या किसी मत को पृथक् करना ही कठिन हो जावेगा अतएव चारों ही अभावों को नि संकोचरूप से मान लेना चाहिये ।
भाववादी सांख्यों के यहाँ प्रकृति आदि 25 तत्त्व हैं ।
अर्थ -- मूलप्रकृति (प्रधान) अविकृति ( अकार्य ) रूप है और प्रकृति के सात विकार हैं । अर्थात् प्रकृति से महान्, महान् से अहंकार और अहंकार से 5 तन्मात्राएँ - गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये सात उत्पन्न होती हैं । ये सातों कारणरूप भी हैं तथा 5 ज्ञानेन्द्रिय- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र तथा 5 कर्मेन्द्रिय-वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ, पांच भूत - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन ये सोलह गण कार्यरूप ही हैं। पुरुष न प्रकृतिरूप है न विकृतिरूप है । इन 25 तत्त्वों में प्रकृतितत्त्व कारणरूप हैं । पुरुषतत्त्व कार्य-कारण से रहित है अर्थात् प्रकृति से बुद्धि उत्पन्न होती है उस बुद्धि से अहंकार और अहंकार से 5 तन्मात्राएँ, 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय और मन ये 16 पदार्थ उत्पन्न होते हैं । इनमें 5 तन्मात्राओं से पंचभूत उत्पन्न होते हैं ।
1 पदार्थानाम् । (दि० प्र० ) 2 सर्वेषामितरेतरादीनामभावानाम् इति पा० । ( दि० प्र० ) 3 लोपः । ( दि० प्र०) 4 आदिपदेन अनादित्वानन्तत्वास्वभावकत्वानि दूषणानि ग्राह्याणि । 5 दूषण: । ( ब्या० प्र० )
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