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भाव एकान्त का निरास ]
प्रथम परिच्छेद
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ग्निर्भासभेदाद्भावस्वभावभेदः' प्रकल्प्येत । स ' ' पुनरभेदेप्यात्मनः ' खण्डशः प्रतिभासनात् 'व्यभिचारी | " ननु ज्ञानात्मन: 7 खण्डश: प्रतिभासनस्य विभ्रान्तत्वात्तत्त्वतस्तस्यैकत्वान्न तेन व्यभिचारः । तदुक्तम्
8 अविभागोपि बुध्यात्मा' 10 विपर्यासितदर्शनै: 1। ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते"
इति चेत् 12, 1 तदन्यत्रापि विभ्रमाभावे " कोशपानं "विधेयम् । शक्यं हि वक्तुं, "संविन्निर्भासभेद:18 " कुतश्चित्प्रतिपत्तुविभ्रम एव, तत्त्वतः संविन्मात्रस्याद्वयस्य 20 व्यव - स्थिते: ।
उत्तर - संवित् ज्ञान में भिन्न-भिन्न पदार्थों का प्रतिभास भेद होने से भाव-वस्तु के स्वभाव में भेद की कल्पना की जाती है सो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अभेद में भी अर्थात् चित्राद्वैतरूप एकत्व में भी यह संविनिर्भास-विज्ञानभेद पाया जाता है । वहाँ पर भी आत्मा के एकत्व का खण्ड-खण्ड रूप से प्रतिभास देखा जाता है ।
अतः आपने जो उपर्युक्त हेतु भेद को सिद्ध करने के लिये दिये हैं वे व्यभिचारी हैं । [ ऐसा चित्राद्वैतवादी बौद्ध के प्रति ब्रह्माद्वैतवादी ने कहा है ]
चित्राद्वैतवादी - ज्ञानस्वरूप का खण्ड-खण्ड रूप से जो प्रतिभास है वह विभ्रान्त है । वास्तव में वह ज्ञान एक ही है इसलिये हमारे चित्राद्वैत से व्यभिचार नहीं आता है । कहा भी है
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श्लोकार्थ – अविभाग स्वरूप भी एक ज्ञानात्मा मिथ्यादर्शन से युक्त पुरुषों के द्वारा ग्राह्य-ग्राहक संवित्तिरूप भेद सहित के समान लक्षित किया जाता है-जाना जाता है ।
ब्रह्माद्वैती - "तब तो चित्रज्ञान स्वरूप से अन्यत्र- हमारे ब्रह्माद्वैत - सत्ताद्वैत में भी विभ्रम से हो भेद कल्पना मानी है यदि आप बौद्ध उसका अभाव करते हैं तो आपको शपथ खानी चाहिये ? " अर्थात्हम ऐसा कह सकते हैं कि जैसा आपने कहा है "ज्ञान में जो प्रतिभास भेद हैं वे किसी अविद्या- रूप कारण से ज्ञाता – जानने वाले को, विभ्रम ही है तत्त्वतः ज्ञानमात्र अद्वैत ही व्यवस्थित होता है । जैसे
भावो, वस्तु ।
2 संविन्निर्भासभेदः । 3 चित्रकज्ञानस्याभेदेपि । ( ब्या० प्र० ) 4 ज्ञानस्वरूपस्य । (ब्या० प्र० ) 15 इति चित्राद्वैतवादिनं प्रत्यवादीद्बह्मवादी । 6 चित्राद्वैतवादी प्राह । 7 ज्ञानस्वरूपस्य । 8 एकः । 9 ज्ञानस्वरूपः । बुद्धिस्वरूपम् । ( दि० प्र० ) 10 मिथ्यादर्शनैः पुरुषः । 11 पुरुष: । ( ब्या० प्र० ) 12 इतो ब्रह्मवादी । 13 चित्रज्ञानस्वरूपादन्यत्र ब्रह्माद्वैते । 14 आह सत्ताद्वैतवादी तस्मादन्यत्र ब्रह्माद्वैते विभ्रमो नास्ति । अत्रास्माभिः शपथ कार्य: । ( दि० प्र०) 15 दिव्यपानम् । 16 सौगतेन । 17 संवित्तिभाव इति, इति पाठ: । (दि० प्र० ) 18 चेतनेतरभेदवदेव ज्ञानाकारः । ( दि० प्र०) 19 अविद्यारूपकारणात् । 20 ब्रह्मरूपस्य ज्ञानमात्रस्य । ( दि० प्र० )
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