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भाव एकान्त का निरास ]
प्रथम परिच्छेद
[ ८३
नास्तित्वम् । 'निष्पर्यायद्रव्येकान्तपक्षे सर्वात्मकत्वादिदोषानुषङ्गः कथं परिहर्तुं शक्यः ? ±सर्वविवर्तात्मकस्यैकस्यानाद्यनन्तस्य ' प्रधानस्येष्टत्वात् तदूव्यतिरेकेण सकलविशेषाणां तत्त्वतोऽसंभवात्सिद्धसाधनमिति' चेन्न', प्रकृतिपुरुषयोरपि विशेषाभावानुषङ्गात्', सत्ताव्यतिरेकेण तयोरप्रतिभासनात्सत्ताद्वैतप्रसङ्गात्' ।
[ ब्रह्माद्वैतवादी सर्वं जगत् सद्रूपं मन्यते, तस्य विचारः ]
"तदेवास्तु", "चेतनेतरविशेषाणामविद्योपकल्पितत्वादिति चेत् " कुतः 14 पुनविशेषान
यदि ऐसा न माना जावे तो “निष्पर्याय रूप ही द्रव्य को मान लेने पर द्रव्यैकान्त पक्ष में सर्वात्मकत्व आदि दोषों का प्रसंग आ जावेगा ।" पुनः उन दोषों का परिहार करना शक्य कैसे होगा ? अर्थात् पर्यायरहित मात्रद्रव्य को ही स्वीकार करने पर सभी द्रव्य सबरूप हो जावेंगे ।
सांख्य- हमारे यहाँ प्रधान सर्व विवर्तात्मक (सभी पर्यायरूप) एक, अनादि और अनन्त स्वीकार किया गया है क्योंकि उस प्रधान को छोड़कर वस्तुतः सकल विशेष भेदरूप - महान् अहंकार आदि असंभव ही हैं अतएव आपका दोषारोप कथन हमारे लिये सिद्ध-साधन ही है । अर्थात् हमें आपके द्वारा सर्वात्मक आदि दोषारोप की चिन्ता नहीं है यह दूषण हमारे लिये भूषण ही है क्योंकि सभी पर्यायें प्रधानात्मक व्यक्तात्मक ही हैं । अर्थात् हमारे यहाँ सभी पदार्थ प्रधानरूप ही हैं ।
जैन- नहीं, यदि आप ऐसा कहेंगे तब तो प्रकृति और पुरुष में भी विशेषाभाव-भेद के अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा क्योंकि सत्ता के बिना उन दोनों का प्रतिभास नहीं होता है अर्थात् प्रकृति एवं पुरुष दोनों "सत्रूप" ही हैं और उन दोनों को यदि आपने सद्रूप से एक माना तब तो आप सत्ताद्वैतवादी-ब्रह्माद्वैतवादी बन जायेंगे क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादी सभी चेतन-अचेतन जगत को एक 'सत्' स्वरूप परमब्रह्मरूप ही मानते हैं ।
[ ब्रह्माद्वैतवादी संपूर्ण जगत् को सत्रूप मानते हैं उस पर विचार ]
सत्ताद्वैतवादी - सत्ताद्वैत का प्रसङ्ग आ जावे, ठीक है इसमें आप की हानि ही क्या है ? क्योंकि
1 ( पर्याय विवर्त्तः) । 2 सांख्यः । 3 अत्राह सांख्यः । सकल विवर्त्तस्वरूपमद्वितीयमाद्यन्तरहितं प्रधानमिष्टम् । अतः प्रधानरहितेन सर्वविशेषाणां परमार्थतोऽसंभवात् । अस्माकं साधनं सिद्धमिति चेत् = स्या० एवं न । कुतः । हे सांख्यभवदभ्युपगतयोः प्रकृतिपुरुषयोरपि इयं प्रकृतिः अयं पुरुष इति विशेषस्याभावानुषङ्गात् । कर्थस्ताव प्रधाने पतितौ पुनः कुतः सत्तारहितेन तयोः प्रकृतिपुरुषयोरप्रतिभासनात् । एवं सति सांख्यस्य सत्ताद्वैतप्रसंग आयाति । ( दि० प्र० ) 4 प्रधानव्यतिरेकेण । 5 महदादीनाम् । 6 सिद्धस्यैव सर्वात्मकत्वादिदोषस्य साधनम् । 7 जैनः | 8 भेद: । (ब्या० प्र० ) 9 सांख्यस्य ब्रह्माद्वैतवादप्रसङ्गात् । 10 आह सांख्यः सत्ताद्वैतमेव भवतु । अयं चेतनोऽयमचेतन इति विशेषाऽनाद्यविद्यावशादुपकल्पिता यतः लोके इति चेत् =स्या० विशेषात् पुनः कुतः प्रमाणात् भवान् निराकुर्वीत् । न तावत् प्रत्यक्षात् कुतः । तस्य प्रत्यक्षस्य वस्तुसद्भावनिश्चायकत्त्वात् । असद्भूतस्य विशेषस्य प्रतिषेधे प्रवृत्तेरसंभवात् । ( दि० प्र०) 11 सत्ताद्वैतमेवास्त्विति ब्रह्माद्वैतवादी प्रत्यवतिष्ठते । 12 चेतनादितरे येऽचेतनविशेषास्तेषाम् । 13 ( जैनः प्राह ) कुतः प्रमाणात् । 14 भेदान् । (ब्या० प्र०)
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