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एकान्तवाद में पुण्यपापादि का अभाव ]
प्रथम परिच्छेद
[ ६६ [ बौद्धो-नित्यपक्षे कार्यस्योत्पत्तिं न मन्यते तस्य विचार: ] 'कथमत्रोत्पत्तिर्नाम ? तत्र समानः पर्यनुयोगः, ३ सदसतोरनुत्पत्ते निष्पन्नखपुष्पवत् * । नित्यं कथमुत्पद्यते सत्त्वान्निष्पन्नवदिति 'पर्यनुयुज्यते, न पुनः क्षणिकं कथं प्रादुर्भवेत् ? असत्त्वात्खपुष्पवदिति पर्यनुयोगार्हमिति’ पक्षपातमात्रम् | "सतः 1 पुनर्गुणान्तराधान-13 मनेकं14 1 क्रमशोप्यनुभवतः किं 1 विरुध्येत, ? *। नन्वेकत्वं18 विरुध्यते । स हि गुणा
निष्पन्न
[बौद्ध नित्यपक्ष में कार्य की उत्पत्ति नहीं मानता है उस पर विचार] बौद्ध-"इस नित्यपक्ष में कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी ?
जैन-आपके अनित्य-क्षणिक में उत्पत्ति कैसे होगी? यह समान ही प्रश्न चलेगा क्योंकि सर्वथा सत अथवा असत की उत्पत्ति हो नहीं सकती है जैसे
आत्मा की उत्पा सकती एवं आकाश पुष्प की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती अर्थात्" सर्वथा सत्-विद्यमान की उत्पत्ति नहीं हो सकती, जैसे आत्मा आदि निष्पन्न पदार्थ उत्पन्न नहीं होते तथैव सर्वथा असत्-अविद्यमान की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती जैसे आकाश के फूल आदि नहीं उत्पन्न होते हैं। "नित्य कसे उत्पन्न होगा क्योंकि वह सत्रूप है निष्पन्न आत्मा आदि के समान ।"
___ इस प्रकार आपने प्रश्न किया है तथैव पुनः "क्षणिक कैसे उत्पन्न होगा असत् होने से आकाश फूल के समान" ऐसा भी आप बौद्ध क्यों नहीं प्रश्न करते हैं अर्थात् ऐसा भी प्रश्न आपको करना चाहिये । और नहीं करने में केवल पक्षपातमात्र ही कारण है अन्य कुछ नहीं।
"पुनः नित्य वस्तु में गुणान्तराधान-सुख-दुःख आदि अनेकों का क्रमशः अनुभव होना क्या विरुद्ध है ? अर्थात् अविरुद्ध ही है" तात्पर्य यह है कि नित्य आत्मा में भी सुख-दुःख आदि अनेकों गुणों का अनुभव क्रम से ही हो रहा है इसमें कुछ भी विरोध नहीं आता है।
बौद्ध-उस नित्य में एकत्व का विरोध है हम आपसे प्रश्न करते हैं कि वे नित्य आत्मादि पदार्थ गुणान्तराधान ज्ञान से ज्ञानान्तर भावरूप अनेकों का क्रमशः अनुभव करते हुये यदि वे एक स्वभाव
1 बौद्धः शङ्कते, हे स्याद्वादिन् अत्र नित्ये कथमुत्पत्तिर्नामेति । 2 स्याद्वादी उत्तरयति-तत्र क्षणिके कथमुत्पत्ति: स्यादिति सम आवयोः पर्यनयोगः (प्रश्न:)। 3 सर्वथा सतोऽसत एव वा। 4 क्रमेण सर्वथा सतोऽनुत्पत्तौ निष्पन्न(आत्मादि) वदिति दृष्टान्तः, सर्वथाऽसतोऽनुत्पत्तौ खपुष्पं दृष्टान्तो ज्ञेयः। 5 क्रमभाव्यनेककार्योत्पादन । (दि० प्र०) द्वन्द्वः । (दि० प्र०) 6 पुरुषवत् । (ब्या० प्र०) 7 सौगतेन । 8 प्रादुर्भवति इति पा० । (दि० प्र०) 9 इति पर्यनुयोगार्ह नेति सौगतेनोक्ते स्याद्वादी आह इति सौगतोक्तं पक्षपातमात्रमित्यादि। 10 पक्षमात्रमिति पा० । (दि० प्र०) || नित्यस्य। 12 शक्तिविशेष । (दि० प्र०) 13 गुणान्तरं सुखदुःखादि । 14 आधानं स्वीकारः। 15 प्राप्नवत: सतः। 16 अपि तु न किमपि। 17 सांख्यमतमालंब्य स्याद्वाद्याह । हे सौगत ! सतो नित्यस्याने गुणान्तरातिशयं क्रमेणाप्यनुभवत: कि विरुद्धयते इति मया पृच्छते भवान् । (दि० प्र०) 18 नित्यस्य । 19 सौगतः सल्लक्षणस्य नित्यस्यैकत्वं विरुद्धयते । पुनराह स्याद्वादी स हि सन् अनेक गुणान्तराधानमनुभवतु परन्तु एकेन स्वभावेनानुभवेत् । अनेकेन स्वभावेन वेति सांख्यप्रतिप्रश्नः । (दि० प्र०) 20 नित्य आत्मादिपदार्थः ।
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