________________
एकान्तवाद में पुण्यपापादि का अभाव ]
प्रथम परिच्छेद त्त्वासत्त्वयोरविशेषात्' *। स्वसत्ताक्षणात्पूर्व पश्चाच्चासति समर्थे 'कारणे 'स्वकालनियताऽर्थक्रियोपपद्यते", न पुनः 'शश्वत्सतीति कुतो नियमः ? 'कारणसामर्थ्यापेक्षिणः फलस्य कालनियमकल्पनायामचलपक्षेपि" समानः परिहारः * । यथैव हि, क्षणिकं कारणं यद्यदा यत्र यथोत्पित्सु कार्यं तत्तदा तत्र तथोत्पादयति4, 1 तस्यैवंविधसामर्थ्यसद्भावात् 16तत्सामर्थ्यापेक्षिणः कार्यस्य स्वकालनियमः सिध्यतीति कल्प्यते तथा नित्यमपि कारणं यद्यदा यत्र यथा फलमुत्पित्सु तत्तदा तत्र तथोपजनयति, "तस्य तादृशसामर्थ्ययोगात्
ही है।" अर्थात् अक्षणिक में नित्यपना होने से कार्य का उत्पाद नहीं घटता है क्योंकि नित्य में क्रिया का विरोध है और क्षणिक में असत् होने से कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि पूर्वक्षण का नष्ट हुआ कारण कार्य का जनक कैसे होगा?
बौद्ध-स्वसत्ताक्षण अपने अस्तित्व के पूर्व और पश्चात् में तो समर्थ कारण नहीं हैं किन्तु अपने वर्तमान मात्र काल में विद्यमान हैं। उसके स्वकीय वर्तमान काल में नियत निश्चित मौजूद होने से अर्थक्रिया बन जाती है
किन्तु शाश्वत्-सत्-नित्य कारण में वह अर्थक्रिया नहीं हो सकती है।
जैन-इस प्रकार का नियम कैसे होगा कि क्षणिक में तो अर्थक्रिया हो जावे और नित्य में न हो सके ?
बौद्ध-कारण सामर्थ्य की अपेक्षा रखने वाले फलरूप कार्य में काल का नियम है । अर्थात् जब समर्थ कारण होता है भले ही वह विनष्ट हो चुका है फिर भी उसी अनन्तर क्षण में कार्य उत्पन्न हो जाता है अतः काल ही क्षणिक में अर्थक्रिया का नियामक है।
जैन-यदि आप काल के नियम की कल्पना करते हैं तब तो अचल-नित्य पक्ष में भी परिहार समान ही है।" अर्थात् नित्यपक्ष में भी समर्थ रूप कारण के होने पर ही कार्य होता है सदैव नहीं अतः नित्यवाद में भी समर्थकारण का काल कार्य का नियामक होने से नित्य में भी अर्थक्रिया संभव है। ऐसा मान लेना चाहिये।
1 (कार्य प्रत्यकारणत्वेन)। 2 क्षणिककारणस्य सत्ता। 3 पुन: नित्ये स्वसत्ताक्षणात् पूर्व पश्चाच्च विद्यमाने स्वकालनियताऽर्थक्रिया नोपपद्यते सौगतस्येति नियमः कस्माज्जायते न ज्ञायतेऽस्माभिः । (दि० प्र०) 4 किन्तु स्वकीयवर्तमानकाले सति। 5 स्वकालो वर्तमानः। 6 अर्थस्य क्रियाकार्यम् । (ब्या० प्र०)7 नित्ये कारणे। 8 एवम् । (ब्या० प्र०) 9 कार्यस्य । (ब्या० प्र०) 10 सौगतमते। 11 नित्यपक्षे। 12 भवन्मते। 13 कर्तृ भूतं क्षणिक कारणमिति पूर्वेणान्वयः। 14 तथोत्पादनायाऽतीतस्य इति पा० । (दि० प्र०) 15 क्षणिकरूपस्य कारणस्य । 16 कारण । (दि० प्र०) 17 इति सौगतेन कालनियमः कल्प्यते यथा तथा जैनैनित्यमित्यादि। 18 इति । (दि० प्र०) 19 नित्यस्य कारणस्य ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org