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[ कारिका ८
तस्य' वा तदकार्यत्वसिद्धेस्तद्वत्' । कार्यमेव ' ' तदनन्तरं संभवतीति चेत्, कालान्तरेपि किन्न स्यात् ? ' तदभावाविशेषात् 'समनन्तरवत् । कालान्तरेपि किञ्चिद्भवत्येव' "मूषिकालर्क्षविषविकारवद्भाविराज्यादि" निमित्तकरतलरेखादिवच्चेति चेत्, "समर्थे सत्यभवत: 14 पुनः कालान्तरे भाविनस्तत्प्रभवाभ्युपगमे कथमक्षणिकेऽर्थक्रियानुपपत्तिः, 16 तत्स
होने पर तो हुआ नहीं और स्वयमेव पश्चात् हो जाता है अन्य कार्य के समान । जैसे गेहूँ का अकुर गेहूँरूप बीज के होने पर नहीं होता है उसी प्रकार वह जौरूप बीज के होने पर भी नहीं हुआ अतः उस गेहूँ के अङ्कुर के लिये दोनों ही बौज कारण नहीं हैं। वह अङ्कुर जैसे जो बीज का कार्य नहीं है वैसे ही गेहूँ के भी बीज का कार्य नहीं है ।
बौद्ध-कार्य ही तदनंतर - पूर्वक्षण क्षय के अनन्तर ही उत्पन्न हो जाता है इसीलिये यह कार्य इस कारण से उत्पन्न हुआ है ऐसा कहा जाता है ।
जैन - " पुन: वह कार्य कालान्तर में क्यों नहीं हो जाता क्योंकि तत् - पूर्वक्षण का अभाव दोनों में ही समान है समनन्तर के समान अर्थात् पूर्वक्षण कारण नष्ट हो जाने पर" उत्तरक्षण कार्य उत्पन्न हुआ तब तो नष्ट हुआ पूर्वक्षण कारण कैसे रहा ? यदि मानों तो उससे पहले के भी दो, तीन, चार आदि क्षण नष्ट हो चुके हैं वे भी उस कार्य के कारण क्यों नहीं कहे जाते हैं ?
बौद्ध - कोई कार्य कालान्तर में भी होता ही है, जैसे मूषिका एवं अलर्क्ष ( उन्मत्त ) कुत्ते का विषविकार | इनके काटने पर कालान्तर में ही विष चढ़ता है एवं जैसे भावी राज्यादि के लिये होने वाली हाथ की रेखायें आदि । (आप जैन इन दोनों ही उदाहरणों में प्रत्यक्ष कारण का अविनाभाव स्वीकार करते हैं । )
जैन - "समर्थ कारण के होने पर तो न होवे पुनः कालान्तर में होवे फिर भी उस कारण से यह कार्य उत्पन्न हुआ है ऐसा स्वीकार करने पर अक्षणिक नित्य में भी अर्थक्रिया क्यों नहीं हो जावेगी क्योंकि कार्य के प्रति अकारणपना सत्त्व-नित्य और असत्त्व - अनित्य दोनों ही पक्ष में समान
1 विवक्षितकार्यस्य । 2 तत्, तस्य पूर्वक्षणनिमित्तकं कार्यरूपत्वमुत्तरक्षणस्य कथं न ? तस्मिन् सत्यभावात्, स्वयमेव च पश्चाद्भावात् । 3 अन्य कार्यवत् । 4 तत्कार्यमेव इति पा० । ( दि० प्र०) 5 ( सोगत आह) पूर्वक्षणक्षयानन्तरम् । 6 आह सौगतः । पूर्वक्षणलक्षणकारणसमयादनन्तरसमये यत्कार्यं संभवति । तत् । तस्यैव कारणस्य कार्यमेव इति चेत् । स्या० दीर्घकालान्तरेपि तत्कार्यं किं न भवेत् कुत उभयप्रकारस्याभावो न विशिष्यते यतः । ( दि० प्र० ) 7 तस्य पूर्वक्षणस्य । 8 काले । ( ब्या० प्र०) 9 कार्यम् । ( ब्या० प्र० ) 10 उन्मत्तः श्वा अलर्क्षः । अलर्क इति पुस्तकान्तरे । 11 बस: । (ब्या० प्र० ) 12 अत्रोदाहरणे पूर्वस्मिश्च जैनदृ ष्टकारणस्याविनाभावः स्वीक्रियते । 13 कारणे ( जैनः प्राह ) । 14 स्या० कारणे समर्थे सति कार्यं न भवति कालान्तरे भवति तथापि सौगतस्तत्कार्यमभ्युपगच्छति चेत्तदा सांख्याभ्युपगते सर्वथा नित्येऽर्थक्रिया कथं नोत्पद्यतेऽपितृत्पद्यत एव । कुतः तयोः सर्वथानित्यक्षणिकयोः सत्त्वासत्त्वाभ्यां विशेषाभावात् । ( दि० प्र०) 15 विवक्षितक्षणे । ( दि० प्र० ) 16 (अक्षणिके नित्यत्वात्कार्योत्पादकत्वं न घटते, नित्ये क्रियाविरोधात्, क्षणिके तु असत्त्वादेवेत्यविशेषः) ।
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