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अष्टसहस्री
[ कारिका ८ 'त्कदाचित् क्वचिज्जन्म' संभवति, सदसदनेकान्तप्रतिषेधाद्भावैकान्तवत् । न केवलं 'स्वभावनैरात्म्ये एवायं दोषः किं त्वन्तरुभयत्र वा "निरन्वयसत्त्वेपि12 *, कार्यस्य निर्हेतुकत्वाविशेषाज्जन्मविरोधसिद्धे:14, जन्मनि वा तस्यानुपरतिप्रसङ्गात् ।
[ बौद्धः कार्य सकारणकं साधयति तस्य विचार: ] 17नन्वन्तस्तत्त्ववादिनो योगाचारस्या पूर्वविज्ञानादुत्तरविज्ञानस्योत्पत्तेः सौत्रान्तिकस्य चान्तर्बहिस्तत्त्वोभयवादिन:1 पूर्वार्थक्षणादुत्तरार्थक्षणस्य प्रादुर्भावात्कुतो निष्कारणत्वं कार्य
"केवल स्वभावनैरात्म्यवादी-शून्यवादी के यहाँ ही यह दोष नहीं है, किन्तु निरन्वय सत्वरूप अन्तस्तत्त्ववादी, विज्ञानाद्वैतवादी एवं निरन्वय सत्त्वरूप अन्तर्बहिस्तत्त्ववादियों के यहाँ भी यही दोष आता है।" क्योंकि कार्य का अहेतुकपना समान होने से परलोकादि की उत्पत्ति का विरोध सिद्ध ही है। अथवा निरन्वय सत्त्व में भी परलोकादि का जन्म-प्रादुर्भाव मानो तब तो उनके सर्वदा सद्भाव का ही प्रसङ्ग बना रहेगा। अर्थात् वे कार्य अहेतुक होने से सदा होते ही रहेंगे, उनका कभी भी विराम-अभाव नहीं होगा, किन्तु कभी-कभी अभाव पाया जाता है।
भावार्थ-बौद्धों में चार भेद हैं—सौत्रांतिक, माध्यमिक, योगाचार एवं वैभाषिक । सौत्रांतिक ने अन्तरङ्ग एवं बहिरङ्ग पदार्थों को मानकर उन्हें क्षणिक माना है। माध्यमिक ने सभी जगत् को शून्यरूप ही माना है एवं योगाचार एक ज्ञानमात्र ही तत्त्व मानते हैं अतः वे विज्ञानाद्वैतवादी हैं ।
[बौद्ध कार्य को सकारणक सिद्ध कर रहे हैं उस पर विचार] बौद्ध (योगाचार)-हमारे यहाँ पूर्वविज्ञान से उत्तरविज्ञान की उत्पत्ति मानी है अतः कार्य सहेतुक ही हैं।
बौद्ध (सौत्रांतिक)-पुनः हमने तो अन्तर्बहिः उभय तत्त्व को स्वीकार किया है अतः पूर्वअर्थक्षण से उत्तरअर्थक्षण की उत्पत्ति होती है पुनः कार्य निष्कारण कैसे रहा?
1 अनुष्ठानात् । (दि० प्र०) 2 संसारिदशायाम् । (दि० प्र०) 3 आत्मनि । (दि० प्र०) 4 अभावकान्तपक्षः कर्मादिकं न जनयतीति साध्यो धर्मः । (दि० प्र०) 5 यथा भावैकान्ते कस्यचित्कुतश्चित्कदाचित्क्वचिज्जन्म न संभवति, सदसदनेकान्तप्रतिषेधात। 6 केवलं तत्त्वोपप्लवमाध्यमिकसौगताभ्युपगते स्वभावशून्ये मते अयं दोषो न । किन्त्वन्तस्तत्त्ववादिनः योगाचारस्यान्तर्बहिरुभयवादिनः सौत्रान्तिकस्य सौगतस्य निरन्वयसत्त्वाङ्गीकारे मतेपि अयं पूर्वोक्तो दोषः । (दि० प्र०) 7 शून्यवादे। 8 जन्मविरोधलक्षणः। 9 ज्ञाने निरन्वयसत्त्वे। 10 ज्ञानबाह्यार्थयोनिरन्वयसत्त्वे वा। 11 निरन्वयक्षणक्षये। 12 ज्ञानाद्वैतलक्षणोत्तरक्षणकार्यस्य बहिरर्थोत्तरक्षणकार्यस्य च । 13 कर्मादेः। (दि० प्र०) 14 कार्यस्य। 15 निरन्वयसत्त्वेपि उत्तरक्षणलक्षणकार्यजन्मनि। 16 कार्यस्य। (दि० प्र०) 17 परः । (दि० प्र०) 18 योगाचारबहिर्गतिं वस्तु नास्ति । (ब्या० प्र०) 19 सौत्रान्तिकेऽनुमेयं स्यात् । (ब्या० प्र०) 20 निःकारणक्षणत्वं कार्यस्येति, पाठः । (ब्या० प्र०)
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