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एकान्तवाद में पुण्यपापादि का अभाव ]
प्रथम परिच्छेद
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द्यऽविद्यावासनाया अप्यसत्त्वे ' वितथप्रतिभासहेतुत्वविरोधात् खपुष्पवत् सत्त्वे वा सर्वथा शून्यवादानवतारात् । संवृतिसत्त्वात्तस्या: 2 शून्यवादावतार इति चेत्तर्हि परमार्थतोऽसत्य - विद्या' कथं वितथप्रतिभासहेतुः स्यात् ? 'स्वरूपेण सदेव' हि किञ्चिद्वितथप्रतिभासानपि ' जनयद्दृष्टं यथा चक्षुषि 7 तिमिरादिकं न पुनरसत्खरविषाणम् । इति सर्वशून्यवादिनो व्यलीकप्रतिभासानुपरमप्रसङ्ग एव, अहेतुकत्वात् । ततो' नाभावैकान्ते " " कस्यचित्कुतश्चि
बौद्ध - जितने भी मिथ्या प्रतिभास हैं वे अविद्या-वासना हेतुक हैं अतः उनका अहेतुकपना असिद्ध है ।
जैन - अनादि अविद्या की वासना भी तो असत् रूप है अतः वह असत्य प्रतिभास में हेतु है यह कथन विरुद्ध है आकाशपुष्प के समान । अथवा अनादि अविद्या को सत्रूप मान लेवें तब तो आपके यहाँ सर्वथा “शून्यवाद" बन ही नहीं सकेगा ।
बौद्ध - वह अविद्या तो संवृति-माया से सत्रूप है अतः शून्यवाद बन ही जाता है ।
जैन - तब तो परमार्थ से असत् रूप अविद्या असत्य प्रतिभास का हेतु कैसे होगी ? अर्थात् असत्य से ही असत्य का निर्णय कैसे होगा ? क्योंकि स्वरूप से सत्रूप ही कोई वस्तु असत्य प्रतिभासों को भी उत्पन्न करती हुई देखी जाती है जैसे चक्षु में तिमिर, मोतियाबिन्दु आदि रोग विद्यमान सत्रूप हैं और तभी वे गलत प्रतिभास को करा सकते हैं, गधे के सींग आदि असत् पदार्थ असत्य प्रतिभास को नहीं करा सकते । इसी प्रकार से सर्वशून्यवादियों के यहाँ व्यलीक प्रतिभासों की उपरति (अभाव) का प्रसंग नहीं है अर्थात् हमेशा असत्य प्रतिभास ही होते रहेंगे क्योंकि वे अहेतुक सिद्ध हैं- बिना कारण के ही होने वाले हैं । पुनः अभाव एकान्तरूप शून्यवाद में भी किसी भी कारण से कभी भी किसी जीव में भी कोई भी क्रियाएँ एवं परलोकादि घटित नहीं हो सकते हैं क्योंकि कथञ्चित् सत्-असत्रूप अनेकान्त का आप शून्यवादियों के यहाँ निषेध है सर्वथा भावेकान्त नित्यैकान्त के समान । अर्थात् जैसे सर्वथा नित्यपक्ष में पुण्य-पाप-परलोकादि सम्भव नहीं हैं उसी प्रकार से सर्वथा अनित्यपक्ष में भी सम्भव नहीं हैं ।
1 व्यलीक | ( दि० प्र० ) 2 ( अविद्याया संवृत्या, मायया अयथार्थत्वेनेत्यर्थः ) ( सत्त्वात् शून्यवादः स्यादिति ) । 3 असती अविद्या इति पदभेदः । अविद्यमाना । ( दि० प्र० ) 4 सन्दिग्धानं कान्तिकत्वे सत्याह । 5 शून्यवादः पक्षः स्वरूपं न भवतीति साध्यो धर्मः । वितथप्रतिभासजनकत्वात् यद्वितथप्रतिभासजनकं तत्सत् चक्षुषि तिमिरादिकम् | ( दि० प्र० ) 6 अपि ना सत्यानपि । 7 सदेव तिमिरादिकं वितथप्रतिभासान् जनयति । 8 माध्यमिकना - मसौगतस्य । ( दि० प्र० ) 9 यत एवं = तस्मात् । (दि० प्र०) 10 शुन्यैकान्तवादे । 11 कर्मणः ।
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