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[ कारिका ८
संवेदनस्य प्रत्यक्षतैव ग्राह्यग्राहकाकारविविक्ततयापि प्रत्यक्षता, न पुनः परोक्षता यतो वैश्वरूप्यं प्रकृतपर्यनुयोगयोग्यं भवेदिति चेन्न, ' तथा ' सकृदप्यप्रतिभासनाद्ब्रह्मा' द्वैतवत्', ग्राह्यग्राहकाकाराक्रान्तस्यैव सर्वदा वेदनस्यानुभवात् । ततः .8 संवेदनमेकमनेकं प्रत्यक्षपरोक्षाकारौ बिभ्राणं "सामर्थ्य प्राप्तमेव, "अन्यथा "शून्यसंविदोविप्रतिषेधात् 14 | "ग्राह्यग्राहकाकारशून्यतया हि शून्यम् । " संवेदनमात्रमुपय "तस्तत्संविदुपपद्यते ", न पुनः " संविन्मात्र
अष्टसही
तथैव आपका संवेदनाद्वैत भी प्रतिभासित नहीं होता है क्योंकि सदैव ही ग्राह्य ग्राहकाकार से आक्रांतसहित ही वेदन- ज्ञान का अनुभव होता है । अतएव एक ही ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्षाकार को धारण करते हुये अनेकरूप अर्थापत्ति-सामर्थ्य से प्राप्त है । अन्यथा “शून्यवाद और संवित् का परस्पर में विरोध होने से दोनों का निराकरण हो जावेगा ।"
अर्थात् इस प्रकार से प्रत्यक्ष-परोक्ष आकार को धारण करता हुआ सत्रूप ज्ञान अनेक सामर्थ्य से सिद्ध है फिर भी यदि आप स्वीकार नहीं करेंगे तब तो शून्यवाद का प्रसंग आ जावेगा और जब आप संवित्- [ - ज्ञानमात्र को ही स्वीकार करेंगे तब शून्यवाद का विरोध हो जावेगा क्योंकि संवेदनज्ञान का असत्त्व होना शून्य है और ज्ञान का अनुभव होना संवित् है । इन दोनों का परस्पर में विरोध है ।
जो ग्राह्य-ग्राहकाकार से रहित है उसे शून्य कहते हैं और संवेदनमात्र को स्वीकार करते हुये वह संवित् उत्पन्न होती है । पुनः उस संविन्मात्र को भी " असत्" ऐसा कहते हुये बौद्ध के यहाँ विरोध आता है और उनके स्वमत की सिद्धि नहीं होती है केवल प्रलापमात्र का ही प्रसंग आता है ।
1 पृथक्तया । 2 शून्यतया । ( दि० प्र० ) 3 संविदद्वैतमेकेन स्वभावेनानेकेन वा ग्राह्यग्राहकाकारं स्वीकरोतीति । 4 ( इतो जैन: प्राह, प्राह्मग्राहकाकारतयापि प्रत्यक्षत्वे ) । 5 स्या० एवं न । कुतः । संवेदनस्य प्रत्यक्षता प्रतिपाद्यते यथा सौगतैः । तथा एकवारमपि न प्रतिभासते लोके । यथा ब्रह्माद्वैतस्य प्रत्यक्षता न प्रतिभासते । ( दि० प्र० ) 6 निर्विशेषत्वेन यथा ब्रह्माद्वैतं न प्रतिभासते । 7 ग्राह्यग्राहकाकारविविक्ततया राहित्येन संवेदनस्य प्रत्यक्षता न संभवति यत: । (द० प्र० ) 8 ग्राह्यग्राहकाकारविविक्ततया संवेदनस्य प्रत्यक्षता न संभवति यतः । 9 ग्राह्यग्राहकाकारविविक्ततया प्रत्यक्षमेवाकारं बिभृयात् । ( दि० प्र०) 10 युक्तिबलात् । ( दि० प्र० ) 11 ग्राह्यग्राहकाकारविविक्ततयापि प्रत्यक्षमेवाकारं बिभृयाद्यदि । 12 एवं प्रत्यक्षपरोक्षाकारौ बिभ्राणं सदनेकं ज्ञानं सामर्थ्यप्राप्तमपि यदि नेष्यते तदा शून्यवादप्रसङ्गः । स च संविन्मात्राभ्युपगमेन विरुध्यते । 13 संवेदनस्यासत्त्वं शून्यं, संवेदनस्यानुभवः संवित् । तयोः परस्परं विरोधात् । ( संविद्रूपं मन्यते सौगतैः शून्यवादश्चोपपाद्यते इति परस्परविरोधः ) । 14 संवेदनमेव नास्ति कथं संवेदनानुभव इति विरोधः । 15 ( परस्पर विरोधमेव दर्शयति ) । 16 ग्राह्यग्राहकाकाररहितमित्यर्थः (दि० प्र०) 17 अभ्युपगच्छतः । उपवर्णयतः इति पाठान्तरम् । 18 (संवेदनमात्रम्) । 19 स्वाभिमतं संविन्मात्रमुपयतस्तु तत्संविन्मात्रं संविदुपपद्यते सिध्यति । परन्तु तत्संविन्मात्रमपि यदि न स्वीकुर्यात् किन्तु असदित्युपवर्णयेत्तदा तस्य संविन्न सिध्येत्, यतः परस्परं संविदसतोविप्रतिषेधः । तत एव च स्वेष्टासिद्धिबौद्धस्य ।
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