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जय पराजय व्यवस्था ]
प्रथम परिच्छेद
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नत्वात् । 'किमेवं' वादिना कर्तव्यमिति चेत्, विजिगोषुणोभयं कर्तव्यं स्वपरपक्षसाधनदूषणम् । ततः किमिति चेत्, अतोरन्यतरेणा सिद्धानैकान्तिकवचनेपि 'जल्पापरिसमाप्तिः *, 'कस्यचित्स्वपक्षसिद्धेरभावात् । कथं तर्हि वादपरिसमाप्तिर्वादिप्रतिवादिनोरिति चेत्, निराकृतावस्थापितविपक्षस्वपक्षयोरेव' जयेतरव्यवस्था, नान्यथा । तदुक्तं
"स्वपक्षसिद्धिरेकस्य' निग्रहोन्यस्य वादिनः । नासाधनाङ्गवचनं नादोषोद्भावनं 10 द्वयोः 11 || " इति । तथा तत्त्वार्थश्लोकवातिकेप्युक्तं —
बौद्ध - पुन: इस प्रकार से वादी को क्या करना चाहिये ?
जैन - विजिगीषु को स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण दोनों ही करना चाहिये ।
बौद्ध - पुनः उससे क्या होगा ?
जैन - "वादी और प्रतिवादी को इन दोनों में से किसी एक के प्रयोग के द्वारा असिद्ध अनैकांतिक दोष के आ जाने पर भी जल्प-वाद की परिसमाप्ति नहीं होगी" क्योंकि किसी को भी अपने पक्ष की सिद्धि नहीं हो सकेगी ।
भावार्थ- जब वादी स्वपक्ष की सिद्धि न करके परपक्ष का खण्डन कर देगा तब वादी के लिये स्वपक्ष की सिद्धि न होने से असिद्ध दोष आवेगा और जब स्वपक्ष की सिद्धि करके भी परपक्ष का खण्डन नहीं करेगा तब विपक्ष में भी जय का संदेह होने से अनैकांतिक दोष हो जावेगा । इसलिये स्वपक्षसिद्धि और परपक्षखण्डन दोनों ही करने चाहिये एक नहीं ।
बौद्ध - पुनः वादी प्रतिवादी में वाद की परिसमाप्ति कैसी होगी ?
जैन- " परपक्ष का निराकरण एवं स्वपक्ष का व्यवस्थापन करने से ही जय-पराजय की व्यवस्था होती है अन्यथा नहीं हो सकती है ।" कहा भी है
श्लोकार्थ - वादी प्रतिवादी दोनों में से एक के अपने पक्ष की सिद्धि होने से जय की प्राप्ति और अन्यवादी का निग्रह होने से पराजय की प्राप्ति होती है अतः वादी एवं प्रतिवादी दोनों के लिये ही असाधनाङ्ग वचन भी निग्रहस्थान नहीं है और न दोषों को प्रगट न करनेरूप अदोषोद्भावन ही निग्रहस्थान हैं ।
भावार्थ- - जब वादी परपक्ष का खण्डन कर देता है तब वादी का जय और प्रतिवादी का पराजय हो जाता है और जब प्रतिवादी अपने पक्ष को स्थापित कर देता है तब उसका जय और वादी का पराजय सिद्ध हो जाता है । तथा इलोकवार्तिक में भी कहा है
1 बौद्धः पृच्छति । 2 प्रतिज्ञादिवचनस्यानिग्रहस्थानत्वे सति । 3 विजिगीषुणोभयं स्वपरपक्षसाधनदूषणं कर्तव्यं यतस्ततः किमित्यर्थः । ( ब्या० प्र०) 4 वादिप्रतिवादिनोर्मध्ये | 5 जल्पो, वादः । 6 साधनदूषणाभावे । ( ब्या० प्र० ) 7 वादिप्रतिवादिनो । ( ब्या० प्र० ) 8 वादिप्रतिवादिनोर्मध्ये एकस्य । यदा वादी निराकृतविपक्षस्तदा वादिनो जयः प्रतिवादिनः पराजयः । यदा प्रतिवादी अवस्थापित स्वपक्षस्तदा तस्य जयो वादिनस्तु पराजय इत्यर्थः । 9 निग्रहस्थानम् । 10 'च' इत्यध्याहार्यम् । 11 वादिप्रतिवादिनोः ।
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