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अष्टसहस्री
[ कारिका ८ चशब्दान्निःश्रेयसादि'परिग्रहः । एतत्सर्वमेकान्तग्रहरक्तेष्वनित्यैकान्ताद्यभिनिवेशपरवशीकृतेषु मध्ये न “क्वचित्संभवति, तेषां स्ववैरित्वात् तत्त्वोपप्लववादिवत् । स्ववैरिणस्ते, 'परवरित्वात्तद्वत् । किं पुनः स्वं को वा पर: ? पुण्यं पापं च कर्म 1 तत्फलं "कुशलमकुशलं व स्वं, तत्सम्बन्ध:12 परलोकादिश्च, तस्य4 स्वयमेकान्तवादिभिरिष्टत्वात् । परः पुनरनेकान्तः, तस्य तैरनिष्टत्वात् । तद्वै रित्वं तु तेषां तत्प्रतिषेधाभिधानात् । तत्स्ववैरित्वं साधयति, यस्मात् कर्मफलसंबन्ध परलोकादिकमेकान्तवादिनां प्रायेणेष्टं तदनेकान्तप्रतिषेधेन 21बाध्यते ।
में किसी एक में भी संभव नहीं हैं क्योंकि वे स्वबैरी हैं तत्त्वोपप्लववादी के समान । और वे स्वबैरी इसलिये हैं क्योंकि पर-अनेकान्त के बैरी हैं तत्त्वोपप्लववादी के समान ।
प्रश्न-स्व और पर किसे कहते हैं ?
उत्तर-पूण्य और पाप कर्म-क्रियायें और उनका फल एवं कुशल और अकुशल सुख और दुःख ये "स्व" कहलाते हैं। उनसे सम्बन्ध रखने वाले परलोकादि भी 'स्व' हैं क्योंकि इनको स्वयं एकांतवादियों ने स्वीकार किया है तथा अनेकान्त को "पर" कहते हैं क्योंकि उन एकान्तवादियों को वह अनिष्ट है और अनेकांत का बैरीपना तो उनके द्वारा अनेकान्त का प्रतिषेध होने से उनमें घटित ही है अर्थात् वे अनेकान्त का प्रतिषेध करते हैं अतः अनेकान्त के बैरी-तबैरी हैं और अनेकान्त का बैरीपना ही उनके स्वबैरीपने को भी सिद्ध कर देता है क्योंकि
कर्म, कर्म का फल और उससे सम्बन्धित परलोकादिक प्रायः एकान्तवादियों को इष्ट हैं पुनः वह सब व्यवस्था उनके द्वारा अनेकान्त का प्रतिषेध होने से बाधित हो जाती है । अर्थात् पर-एकान्तवादी सभी लोग स्वयं कर्म, उसका फल एवं परलोकादि को प्रायः स्वीकार करते हैं और अनेकान्त का विरोध करते हैं अत: अनेकान्त के द्वषी होने से ही वे परबैरी कहलाये एवं परबैरी होने से ही वे स्वबैरी भी सिद्ध हो जाते हैं क्योंकि अनेकान्त को स्वीकार किये बिना उन एकान्तवादियों के यहाँ
1 आदिना मोक्षादिग्रहश्च। 2 पुण्यपापपरलोकादिकम् । 3 वादिषु। 4 कस्मिश्चित् । (दि० प्र०) 5 स्वयमङ्गीकृतस्य परलोकादेः। 6 तेषां स्ववैरित्वमसिद्धमिति चेदाह। 7 अनेकान्तमतवैरित्वात् । 8 श्रीमद्विद्यानन्दसूरयः कारिकाया एव व्याख्यानं कृत्वाऽनन्तरं वक्ष्यमाणभाष्यानुसारेण कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्चेति कारिकां प्रकारान्तरेण व्याचिख्यासवः प्राहुः । पुण्यमिति पुण्यं । सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यमिति सूत्राभिमतम् । (दि० प्र०) 9 प्रशस्तम् । अतोन्यत्पापमिति सूत्राभिमतस्वरूपम् । (दि० प्र०) 10 पुण्यपापरूपकर्म फलम् । 11 सुखं दुःखं च । 12 तेन पूण्यपापरूपेण धर्माधर्मेण सम्बन्धः कार्यकारणलक्षणो यस्य सः परलोकादिः। 13 स्वमिति सम्बन्धः ।
कुशलाकुशलादिपूर्वोक्तस्य। 15 अनेकान्तस्य । एकान्तवादिभिः । (दि० प्र०) 16 परवैरित्वमनेकान्तवैरित्वं वा। 17 स अनेकान्तः। 18 तत परवरित्वं, स्वस्य स्वकीयस्य वैरित्वम् । 19 यसः (कर्मधारयः)। 20 कर्मफलादिकमनन्तरोक्तम् । 21 यस्मादेतत्पराभिमतं कर्मफलादिकमनेकान्तनिषेधेन बाध्यते तस्मात्परवैरित्वं, स्ववैरित्वं साधयति, (यतस्ते बाधितमपि स्वपक्षं स्वीकूर्वन्ति)।
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