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अष्टसहस्री
[ कारिका
"स्वपक्षसिद्धिपर्यन्ता शास्त्रीयार्थविचारणा। वस्त्वाश्रयत्वतो यदल्लौकिकार्थविचारणा' इति ।
इति दर्शयन्नुभयमाह * ग्रन्थकारः श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्यः । 'स त्वमेवासि निर्दोषः' इति, त्वन्मतामृतबाह्यानामित्यादि' च, गम्यमानस्यापि वचने 'दोषाभावात् ।
ननु च सर्वथैकान्तवादिनामपि कुशलाकुशलस्य कर्मणः परलोकस्य च प्रसिद्ध राप्तत्वोपपत्तेमहत्त्वं' किं नः स्तुतमित्याशङ्कायामिदमाहुः--
श्लोकार्थ-अपने पक्ष की सिद्धिपर्यन्त ही शास्त्रीय अर्थ की विचारणा होती है क्योंकि जिस प्रकार से लौकिक अर्थ की विचारणा वस्तु के आश्रय पर्यन्त ही है। अर्थात्-धनप्राप्ति पर्यन्त ही लौकिक अर्थविचारणा होती है । अतः विजिगीषु को स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण दोनों ही करना चाहिये। इस प्रकार से ग्रन्थकार श्री स्वामीसमन्तभद्राचार्यवर्य दोनों को दिखलाते हुये कहते हैं “सत्त्वमेवासि निर्दोषः" इस कथन से स्वपक्ष की सिद्धि की है एवं "त्वन्मतामृतबाह्यानां' इत्यादि कारिका में परपक्ष को दूषित किया है क्योंकि गम्यमान -जाना गया होने पर भी उसका कथन करने में दोष नहीं है।
भावार्थ-बौद्ध ने यह आशङ्का की थी कि "सत्त्वमेवासि निर्दोषः" इस कारिका में आप जैन अपने जैनमत को प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अबाधित एवं भगवान् अर्हन्त को ही परमात्मा सिद्ध कर चुके हैं पुनः सामर्थ्य-अर्थापत्ति से परपक्ष का खण्डन एवं कपिल आदि सर्वज्ञ नहीं है ऐसा कथन हो जाता है पुनरपि उनका खण्डन करने की क्या आवश्यकता है ? जबकि हम बौद्धों के यहाँ अन्वय-व्यतिरेक प्रयोग में से किसी एक के करने से ही साध्य की सिद्धि मानी है और दोनों के प्रयोग को वचनाधिक्य नाम का दोष (निग्रहस्थान) माना है। इस पर जैनाचार्यों ने अनेक युक्ति प्रतियुक्तियों के द्वारा इस बात को सिद्ध करके बताया है कि अन्वय-व्यतिरेक या प्रतिज्ञा उदाहरण आदि के प्रयोग करने पर वचनाधिक्य दोषरूप निग्रहस्थान होना एवं उससे जय-पराजय की व्यवस्था करना गलत है, प्रत्यूत जय-पराजय की व्यवस्था तो स्वपक्ष की सिद्धि एवं परपक्ष के खण्डन करने में ही निश्चित है वह स्वपक्षसिद्धि और परपक्षखण्डन चाहे वादी करें अथवा प्रतिवादी करें दोनों के लिये ही उसी बात पर ही जय-पराजय की व्यवस्था अवलम्बित है।
उत्थानिका-सर्वथा एकान्तवादियों के यहाँ भी कुशल-पुण्य, अकुशल-पापरूप क्रियायें एवं परलोक की प्रसिद्धि होने से उनके भगवान् में भी आप्तपना घटित होता है अतः वे भी महान् हैं पुन: आप समन्तभद्र आचार्य उनकी स्तुति क्यों नहीं करते हैं ? भगवान् के द्वारा ऐसी आशङ्का करने पर ही मानो श्री स्वामीसमन्तभद्राचार्यवर्य कहते हैं
1 धनप्राप्तिपर्यन्तम् । 2 स्वपरपक्षसाधनदूषणं कर्तव्यं विजिगीषुणेत्येतत् । 3 इति स्वपक्षसाधनम् । 4 इति परपक्षदूषणम् । 5 वादिनः स्वपक्षसाधने कृते सति यद्यपि परपक्षनिराकरणं स्वयमेव निश्चीयमानं तथापि तस्य प्रतिपादने दोषो नास्तीति यतः । (दि० प्र०) 6 घटनात् । (दि० प्र०) 7 सर्वज्ञत्वसिद्धेः । (दि० प्र०) 8 स्वामिभिरिति शेषः । (दि० प्र०) 9 समन्तभद्रस्वामिनः ।
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