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[ कारिका ७
३८ ]
अष्टसहस्री तदर्थाप्रतिपत्तेः । तावतार्थप्रतिपत्तो समर्थन वा निगमनादिक' * कथमतिशयीत ? अकिञ्चित्करत्वाविशेषात्', यतः पराजयो न भवेत् *, ताथागतस्य हेत्वाद्यभिधाने 'तत्समर्थनाभिधाने वा। 10हेत्वाद्यनभिधाने कस्य समर्थन मिति चित्तथा सन्धाया12 अप्यनभिधाने क्व हेत्वादि:13 प्रवर्तताम् ? 14गम्यमाने 1 प्रतिज्ञाविषये एवेति चेद्गम्यमानस्य” हेत्वादेः समर्थनमस्तु । गम्यमानस्यापि हेत्वादेर्मन्द प्रतिपत्त्यर्थं वचनमिति चेत्तथा ।सन्धावचने कोऽपरितोष: ?
कर सकता है अर्थात् वह हेतु किस प्रकार से प्रतिज्ञा को स्वीकार नहीं करता है ? अन्यथा प्रतिज्ञा वत् हेतु भी व्यर्थ हो जावेगा।"
उस हेतु का कथन करने पर भी यदि उस हेतु का समर्थन नहीं करोगे तो साध्य-अर्थ का ज्ञान नहीं होगा । तथा च यदि आप कहें कि-"हेतु मात्र से ही साध्य को प्रतिपत्ति होती है तब तो समर्थन भी निगमनादि से अतिशयमान् कैसे हो सकेगा?" क्योंकि समर्थन और निगमन दोनों ही अकिञ्चित्कर होने से समान ही हैं "जिससे कि पराजय न हो सके अर्थात् होगा ही होगा।" आप बौद्ध को हेतु आदि का कथन करना अथवा उसका समर्थन करना दोनों में से किसी एक का प्रयोग उचित है । अतः हेतु को न कहकर मात्र समर्थन ही कह देना चाहिये ।
बौद्ध-तब तो हेतु आदि के न कहने पर समर्थन किसका करेंगे ?
जैन-यदि ऐसी बात है तब तो उसी प्रकार से प्रतिज्ञा का प्रयोग किये बिना भी हेतु आदि की प्रवृत्ति कहाँ होगी?
बौद्ध-अर्थापत्ति से प्रकरण आदि के निमित्त से तो प्रतिज्ञा का विषय गम्यमान ही है। जैन-उसी प्रकार से गम्यमान हेतु आदि का भी समर्थन हो जावे।
बौद्ध–यद्यपि हेतु आदि गम्यमान जाने हुए हैं फिर भी मंदमति को समझाने के लिये उनका प्रयोग उपयोगी है।
1 तस्य हेतोरर्थः साध्यं तस्य निश्चयो न संभवति यतः । (दि० प्र०) 2 भो सौगत साधनमात्रात् । 3 कर्तृ। 4 वाशब्दोत्र निगमनस्य समुच्चये न केवलं हेतुरेवेत्यर्थः। 5 निगमनादे: समर्थनं कथमतिशयवदित्यर्थः। 6 कर्म । 7 समर्थननिगमनयोः। 8 कुतः । (दि० प्र०) 9 तत्समर्थनानभिधाने वा हेत्त्वाद्यनभिधाने तत्समर्थनाभिधाने कस्य समर्थनमिति चेत् । इति पा० । (दि० प्र०) 10 भो जैन, त्वया हेतुं कथयित्वा यदि समर्थयते तदा दूषणं, परन्तु हेत्वाद्यनभिधाने। 11 इतो जैनः। 12 तथा संधा इति पाठ० । (दि० प्र०) 13 साध्य । (दि० प्र०) 14 अर्थाद्गम्यमाने । प्रकरणादिवशेनैवेत्यर्थः। 15 लक्षण । (दि० प्र०) 16 हेतुः प्रवर्तते । (दि० प्र०) 17 ननु प्रयुक्तस्य । (ब्या० प्र०) 18 मन्दमतिप्रतिपत्त्यर्थम् इति पा०। (ब्या० प्र०) 19 सन्धा प्रतिज्ञा मर्यादा इत्यमरः ।
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