________________ CS अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [प्रथमो-तदहमेनामनृणां करोमि / (-इत्यङ्गलीयकं ददाति)। [सख्यौ-प्रतिगृह्य, नामाक्षराणि वाचयित्वा च परस्परमवलोकयतः ] / बद्धं = संसक्तं-दृश्यते / स्वेदजलेन कर्णशिरीष गण्डस्थले आमक्तं सत्तथा न तरलितं भवतीति-स्वेदोदकस्य कुसुमरोधकता स्फुटा। घटोत्क्षेपणादेव चबन्धे स्रंसिनि = प्रशिथिले केशबन्धे सति, एकेन हस्तेन = पाणिना, यमिता: = नियमिताः / धृताः। अत एव अद्यापि पर्याकुलाः = विसंस्थुलाः। विपर्यस्ता इति यावत् / अस्या मूर्धजाः = चिकुराः / 'सन्तति शेषः / [अत्र श्रान्तजनवर्णनात्स्वभावोक्तिः, स्तनकम्पात्प्रमाणाधिकश्वासानुमानादनुमानञ्चालङ्कारः, बन्धस्रंसनात्पर्याकुला इति-काव्यलिङ्गञ्च, अनुप्रासश्च / 'देशकाल. स्वरूपेण वर्णना दृष्टमुच्यते' इति दर्पणोक्त दृष्टं भूषणमत्र शेयं / 'चण्डि !' इत्यारभ्य 'ददाती' त्यन्तेन करणं नाम मुखसन्ध्यङ्गं, 'करणं पुनः प्रकृतार्थसमारम्भ' इति दर्पणोक्तेः] तत् = परिश्रान्ततया, एनां = शकुन्तलाम्, अनृणां = प्रतिवस्तुदानेन ऋणमुक्तां, करोमि = कारयामि / अङ्गुलीयकं = मुद्रिका, ददाति = प्रियंवदायै ददाति / नामबोधकानि मुद्रालिखितान्यक्षराणिनाममुद्राक्षराणि = 'दुष्यन्तः' इति मुद्रा कम्पित हो रहे हैं / और शिरीष के फूलों के बने हुए कान के भूषणों (कर्णफूलों) को रोकनेवाला यह पसीने के बिन्दुओं का जाल सा मुखमण्डल पर छा रहा है। ( पसीने से कर्णभूषण चपक रहे हैं)। और इसके शिर का जूड़ा भी ढीला होकर (खुलकर )-हाथ से पकड़े रहने पर भी-इधर-उधर बिखर रहा है / और इस प्रकार इसका केश-पाश अस्त-व्यस्त हो रहा है // 32 // इसलिये-भब ये वृक्ष सेचन में असमर्थ मालूम होती हैं / अतएव इनका ऋणमोचन मैं ही कर देता हूँ। (अपनी अंगूठी निकालकर देता है)। [ दोनों सखियाँ-उस अंगूठी को लेकर, उसपर खुदे हुए 'दुष्यन्त' नाम के अक्षरों को बाँचकर, दुष्यन्त राजा को पहिचान कर, आपुस में देखने और कुछ संकेत करने लगती हैं ] / 1. 'दातुमिच्छति' / 2. 'उभे नामाक्षराण्यनुवाच्य परस्परमवलोकयतः'-पा० /