________________ 210 [तृतीयो अभिज्ञानशाकुन्तलम्- राजा-एकेनाऽभिसन्धिना प्रत्यर्पयामि / शकुन्तला-केण उण ? / [केन पुन: ?] / राजा-यदीदमहमेव यथास्थानं निवेशयामि / (- इत्युपसर्पति) शकुन्तला--आः, का गदी ? / भोदु एवं दाव / [आः ! का गतिः / भवत्वेवं तावत् ] / राजा--इतः शिलापट्टैकदेशं संश्रयावः / (-इयुभौ परिक्रम्योपविष्टौ ) / तदर्थे / तच्च त्वया गृहीतमिति मम हृदयेन कथितमिति सम्बन्धः / तत् = यतो भवतैव गृहीतं तस्मात् / निक्षिप = समर्पय। मा-मेति निषेधदाया॑य / यदीदं त्वया धृतं स्यान्मुनयो मत्सङ्गतं त्वां जानीयुरिति भावः / अभिसन्धिना = पणेन / अभिप्रायेण / लाभेच्छया / इदं = मृणालवलयं / स्थानमनतिक्रम्य यथास्थानं = समुचिते स्थाने त्वद्धजलक्षणे / 'आः' इति पीठासूचनाय / गतिः = उपायः। एवन्तावत् = एवमेव / त्वमेव मम भुजे परिधापयेत्यर्थः / शिलापट्टस्यैकं देशशिलापट्टैकदेशं = शिलाफलकप्रदेशं / संश्रयावः = उपविशावः / स्पर्शः = शरीरमुझसे कहा है, कि-'आपने ही मेरा वह मृणालवलय लिया है / ' अतः उसे मुझे दे दीजिए / उसे धारण कर आप अपने को और मुझको भी मुनिजनों में प्रकट कर कहीं लजित मत कर देना / राजा-उसे एक ही शर्त पर मैं लौटा सकता हैं। शकुन्तला-कहो, किस शर्त पर ? / राजा-यदि इस मृणालवलयको मैं ही अपने हाथ से यथास्थान (तुमारे हाथ में ) पहनाऊं, तो मैं उसे लौटा सकता हूं। (शकुन्तला के पास में उसे पहिराने के लिए खिसककर आता है)। शकुन्तला-आह ! अब मैं क्या करूँ ! / बचनेका कोई दूसरा उपाय भी नहीं है। अच्छा, आप ही इसे मुझे पहिना दो। राजा-आओ, उस शिलापट्ट के कोने पर बैठ जाएं। ( दोनों कुछ चलकर शिलातल पर जाकर बैठ जाते हैं ) /