________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 227 राजा-विशेषेणाऽधिक्षिप्तोऽस्मि!। गौतमी-( शकुन्तलां प्रति-) जादे ! मुहुत्तरं मा लज्ज, अवणइस्सं दाव दे अवगुण्ठणं, तदो भट्टा तुम अहिजाणिस्सदि / (-इति तथा करोति)। [( शकुन्तला प्रति-) जाते ! मुहूर्त्तकं मा लजस्व, अपनेष्यामि तावत्तेऽवगुण्ठनम् / ततो भर्त्ता त्वामभिज्ञास्यति ( -इति तथा करोति ) ] / राजा-( शकुन्तलां निर्वयं, स्वगतम्-) कृतावज्ञादिकं वाऽस्मदवज्ञां वा किमु करोतीत्याशयः / [ अर्थान्तरन्यासः। 'संरम्भवचनप्रायं तोटकम्' इत्युक्तेस्तोटकं नाम गर्भसन्ध्यङ्गम् / आर्या जातिः // 19 // विशेषेण = अत्यन्तम् / अधिक्षिप्तः = तिरस्कृतः। इत आरभ्य विमर्शसन्धिः षष्ठाङ्कममाप्तिं यावत् / / ____ मुहूर्तकं = किञ्चित्कालम् / आपत्कालेऽस्मिन्निति यावत् / अवगुण्ठनम् = मुखावरणम् / [' घट' 'पर्दा' इति भाषायाम्] / तावत् = प्रथमम् / अपनेष्यामिदूरीकरिष्यामि / तथा करोति = अवगुण्ठनमपनयति / निर्वर्ण्य = नितरां विलोक्य / आदि से उन्मत्त हुए लोगों में होते ( बढ़ते ) हए प्रायः देखे जाते हैं // 19 // राजा-यह तो मेरे ऊपर कलङ्क और मिथ्या दोषोंका स्पष्ट ही आरोप है। गौतमी-(शकुन्तला के प्रति-) हे पुत्रि ! थोड़ी देर के लिए लजा को छोड़ / मैं तेरा घघट हटाती हूँ। तब तेरा पति तुझको पहिचान लेगा / ( शकुन्तला का बूंघट हटाती है)। [इससे सिद्ध होता है, कि-पर्दा प्रथा कालिदास के समय में, आज से 2000 वर्ष पहिले भी थी / 'यवनों के समय से ही यह प्रथा हुई है' ऐसा कहने वाले इससे शिक्षा लें। राजा-(शकुन्तला को अच्छी तरह नीचे ऊपर देखकर, मनही मन) इस उज्ज्वल कान्ति और लावण्य तथा सौन्दर्य से युक्त, स्वयं उपस्थित, ऐसी मनोहर सुकुमार अगोंवाली हृदयहारिणी कान्ता को-'यह मेरे से कभी विवा