________________ ऽङ्कः ] 34 अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 529 राजा-भगवन् ! यथाशक्ति श्रेयसे यतिष्ये / मारीचः-वत्स ! किन्ते भूयः प्रियमुपहरामि ? / राजा--अतः परमपि प्रियमस्ति ? / तथाप्येतदस्तु-(भरतवाक्यम्- ) प्रवर्त्ततां प्रकृतिहिताय पार्थिवः, ___ सरस्वती श्रुतिमहती महीयताम् / अतः शकुन्तलाप्राप्तेरपि, परमपि प्रियमस्ति किं 1 / नैवाऽस्तीत्यर्थः / भरतवाक्यं = नटवाक्यम् / नाटकप्रारम्भे नान्दीवदन्तेऽपि सूत्रधारेण पठ्यतेऽयमन्तिमश्लोक इत्यर्थः। प्रवर्त्ततामिति / पृथिव्या ईश्वरः-पार्थिवः = राजा / प्रकृतिहिताय = राष्ट्ररक्षायै, जनकल्याणाय, प्रवर्त्तताम् / श्रुत्या = वेदेन / महती श्रेष्ठा-सरस्वती = देववाणी / वैदिकमार्गः / महीयता= विजयतां / श्रुतेन = शास्त्रश्रवणेन, महतां% गरीयसां / महीयसां = महाकवीनां वाणी 'प्रवर्त्तता मिति 'श्रतमहतीति' पाठा राजा-हे भगवन् ! कल्याणकारी उत्तम कार्यों को ( यज्ञ आदि को) यथाशक्ति सदा ही करते रहने का यत्न मैं करूँगा। मारीच-हे वत्स / अच्छा, कहो-इससे अधिक और क्या प्रिय वस्तु तुमको हम दें ? / [ इस सपुत्र शकुन्तला की प्राप्तिसे भी अधिक और क्या प्रिय उपहार हम तुम्हें दे?] / राजा- हे भगवन् ! इससे भी अधिक और भला क्या प्रिय हो सकता है ? / अर्थात्-मेरी सब से अधिक प्रियवस्तु शकुन्तला तो आप की कृपा से मुझे यहाँ प्राप्त हो ही चुकी है। इससे अधिक और मेरा प्रिय हो ही क्या सकता है। (इसी वीच में नाटक खेलने वाला भरत = नट इस प्रकार आशीर्वाद देता है-) तथापि-यह भी हो, राजा लोग प्रजा के हित के कार्यों में लगे रहें / चारों वेदों से शोभायमान भगवती श्री सरस्वती जगत् में पूजा को प्राप्त हो / अर्थात् वैदिक साहित्य, 1 'यदि भगवान् प्रसादं कर्त्तमिच्छति, तीदमस्तु भरतवाक्यं' 'यदीह भगवान्' पा० / 2 ('भरतवाक्यं'-) 'तथाप्येतदस्तु' पा० / 3 'श्रतमहती महीयसा' पा०।