________________ 486 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [सप्तमो (नेपश्ये--) ___ मा क्खु चवलदं करेहि, जहिं तहिं जेब अत्तणा पइदि दंसेसि / [मा खलु चपलताङ्करु, यस्मिंस्तस्मिन्नेवाऽऽत्मनः प्रकृति दर्शयसि !] / राजा--( कर्ण दत्त्वा-) अभूमिरियमविनयस्य / तत्को नु खल्वेवं निषिध्यते ? / (शब्दाऽनुसारेणाऽवलोक्य, सविस्मयम्- ) अये ! को नु खल्वयमवरुध्यमानस्तापसीभ्यामबालसत्त्वो बाल: ? / क्लेशेनैव / परिवर्त्तते = पुनरायाति / यद्वा-दुःखरूपेण / परिवर्तते-परिणमति / अन्तःस्फुरतीत्यर्थः / यद्वा श्रेयो मया स्वयमेव तिरस्कृतं, सम्प्रति दुःखमात्रमेवाऽवशिष्यते / अतः व सुखं 1 / अहन्तु सम्प्रति केवलं दुःखभागस्मीत्याशयः / [ अर्थान्तरन्यासोऽनुप्रासोऽतिशयोक्तिश्च ] // 13 // , ___ पाठान्तरे-आत्मनः प्रकृति कथं गतः = बालसुलभं चाञ्चल्यं कुतः करोषि 1 / प्रकृतिः = स्वभावः / इयं = तपोवनभूमिः / अविनयस्य = चपलतायाः / अभूमिः = अस्थानम् / एवम् = इत्थम् / अवरुध्यमानः = निषिध्यमानः। अबालस्येव स्वतः उपस्थित कल्याणकारी वस्तु ( जैसे शकुन्तला ) का यदि पहले तिरस्कार कर दिया जाता है, तो फ़िर पुनः उसकी प्राप्ति कठिन ही हो जाती है / अतः अब शकुन्तला की प्राप्ति तो बहुत कठिन है, और इधर तूं दक्षिणभुजा) फड़क रही है। अतः तेरा फड़कना मुझे तो वृथा ही मालूम होता है। [पुरुष की दक्षिण भुजा का फड़कना-अपने प्रिय से समागम की सूचना देता है ] // 13 // [नेपथ्य में-] __ अरे ! ( बालक ) ऐसी चपलता मत कर / जिस किसी के आगे भी (सिंह आदि हिंसक पशुओं के सामने भी ) तूं अपनी चपल प्रकृति को दिखलाया ही करता है / मानता ही नहीं है। राजा-(कान लगाकर सुनता हुआ-) हैं ! यह तपोवन तो अविनय और धृष्टता की भूमि ( जगह ) नहीं है / फिर इस प्रकार किसको मना किया जा रहा है ? / (जिधर से आवाज आ रही थी, उधर ही देखकर-) अहो! दो तापसियों से रोका जाता (पकड़ कर खींचा जाता) हुआ, और बालक होते हुए 1 'कथं गत एवात्मप्रकृतिम्'। 2 'अनुरुध्यमानः' / . .