________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 523 राजा--( सोच्छ्रासमात्मगतम्- ) एष वचनीयान्मुक्तोऽस्मि / शकुन्तला-(स्वगतम्-) दिद्विआ अआरणपञ्चादेसी ण अजउत्तो / ण उण सत्तं अत्ताणं सुमरेसि / अधवा ण सुदो सुण्णहिअआए मए अर्थ सावो। जदो सहीहिं अच्चाअरेण सन्दिट्ठह्मि-'सो राआ जइ तुम ण सुमरेदि तदा एवं अङ्गुलीअं दंसेसि' त्ति। [(स्वगतं- ) दिष्टया अकारणप्रत्यादेशी नाऽऽर्यपुत्रः। न पुनः शप्तमात्मानं स्मरामि / अथवा न श्रुतो विरहशून्यहृदयया मयाऽयं शापः / यतः सखीभ्यामत्यादरेण सन्दिष्टास्मि,-'स राजा यदि त्वां न स्मरति, तदा इदमङ्गुलीयकं दर्शयसी' ति] / मारीच:-( शकुन्तलां विलोक्य-) वत्से ! विदितार्थाऽसि / तदिदानीं सहधर्मचारिणं प्रति न त्वया मन्युः करणीयः / पश्यवचनीयात् = लोकापवादात्। [निर्णयो नाम सन्ध्यङ्गम् ] / दिष्टया = मत्सौभाग्यात् / अकारणप्रत्यादेशी = निर्निमित्तं प्रत्याख्यानकारकः / चरितार्था = कृतार्था / सह धर्म चरतीति-सहधर्मचारी = पतिः / मन्युः = कोपः, शोको वा / 'मन्युशोकौ तु शुकूस्त्रिया' मित्यमरः / 'मन्युदैन्ये ऋतौ क्रुधि' इति च कोशः। राजा-( निश्चिन्तता की सांस लेकर, मनही मन-) अब मैं अपनी पनी के परित्याग से होनेवाले लोकापवाद (लोकनिन्दा) से मुक्त हुआ हूँ। शकुन्तला-(मन ही मन ) बड़े हर्ष की बात है, कि-आर्यपुत्र ने योही ( विना कारण ही ) मेरा परित्याग नहीं किया था, किन्तु उसमें यह शाप ही कारण था। परन्तु मुझे तो दुर्वासा जी के दिए हुए इस शापकी बात तो स्मरण नहीं आती है। कदाचित् मैंने पति के विरहसे शून्य हृदय होने के कारण ही इस शाप को नहीं सुना होगा। इसी लिए मेरी सखियों ने चलते समय मुझे बड़े ही आग्रह से कहा था, कि-'यदि वह राजा तेरे को न पहिचाने, तो उसके दिए हुए इस अङ्गुलीयक ( अंगूठी) को ही परिचय स्वरूप उसे दिखा देना' / मारीच-(शकुन्तला को देख कर ) हे पुत्री ! अब तो तूं अपने परित्याग 1 'दर्शयितव्यमिति'।