________________ 488 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [सप्तमोहन्त ! वर्द्धते इव ते संरम्भः। स्थाने खलु ऋषिजनेन 'सर्वदमन', इति कृतनामधेयोऽसि]। राजा--किं नु खलु बालेऽस्मिन्नौरस इव पुत्रे स्निह्यति मे हृदयम् ! / (विचिन्त्य-) नूनमनपत्यता मां वत्सलयति / द्वितीया--एषा तुमं केसरिणी लंघइस्सदि ! जइ से पुत्तअं ण मुञ्चिस्सदि। [एषा त्वां केसरिणी लवयिष्यति, यद्यस्याः पुत्रकं न मोक्ष्यसि]। बाल:--(-ससितम्- ) अम्महे ! बलिअं क्खु भीदह्मि! . (-इत्यधरं दर्शयति-) [ ( सस्मितम्- ) अहो ! बलीयः खलु भीतोऽस्मि (-इत्यधरं दर्शयति)। मुखं व्यादेहि / नः = अस्माकम् / अपत्यनिर्विशेषाणि = पुत्रवत्पालितानि / पुत्रतुल्यानि / सत्त्वानि = प्राणिनः। सिंहव्याघ्रादीन् / विप्रकरोषि = क्लेशयसि / हन्त ! आश्चर्ये, खेदे वा / संरम्भः = धाष्टर्थ, वेगश्च / स्थाने = युक्तमेव / सर्वान् दमयति-सर्वदमनः / उरसा जाते-औरसे-इव = आत्मज इव / अनपत्यता = सन्तानराहित्यमेव / वत्सलयति = स्नेहयति / स्नेहे प्रवर्त्तयति / अनपत्यो हि परस्यापि बालं दृष्ट्वा तस्मिन् बलवत्स्निह्यतीति प्रसिद्धम् / लङ्घयिष्यति = पुत्रों की तरह पाले हुए इन जीवोंको तूं इस प्रकार क्यों कष्ट देता है ? / हा हन्त ! तेरी धृष्टता उपद्व ) तो प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है / ऋषि लोगों ने तेरा 'सर्वदमन' नाम ठीक ही रखा है / तूं तो किसी से भी नहीं डरता है ! / राजा-(मन ही मन ) न मालूम क्यों, इस बालक के प्रति मेरे हृदय में अपने औरस पुत्र की तरह ही स्नेह हो रहा है ! / (विचार कर-) ठीक है, मेरी अनपत्यता ( सन्तानशून्यता) ही मुझे यों दूसरों के बालकों में स्नेह करा रही है। दूसरी तापसी-देख, यदि तूं इस सिंहनी के बच्चे को नहीं छोड़ेगा, तो यह सिंहनी तेरे ऊपर आक्रमण कर बैटेगी। बालक- मसकराता हुआ व्यंग रूप से- ) अरी मैया री मैया ! तुम्हारे कहने से तो मैं बहुत ही डर गया हूँ ! / (होठ निकाल कर दिखाता है, मुँह चिढ़ाता है)। १५सिंही पा /