________________ 484 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [सप्तमो___ मातलि:-उत्सर्पिणी खलु महतां प्रार्थना / ( परिक्रम्य, आकाशे-) वृद्धशाकल्य! किंव्यापारः सम्प्रति भगवान् मारीचः ? / ( आकर्य-) किं ब्रवीषि -दाक्षायण्या पतिव्रतापुण्यमधिकृत्य पृष्टस्तदस्यै महर्षिपत्नीगणसहितायै कथयतीति ? / तत्प्रतिपाल्यावसरः खलु प्रस्तावः / सम्भोगाद्यर्थ यत्स्थानं स्वर्गादिदिव्यभुवमिच्छन्ति / तत्रैव = तत्प्राप्यापि / अमी = पुर:स्थिता मुनयः। तपश्चरन्ति = तपस्यन्ति ! / [स्त्रीसांनिध्यादिकारणसत्त्वेऽपि कार्यानुत्पत्त्या-विशेषोक्तिः / अनुप्रासाः। 'शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् // 12 // उत्-ऊर्ध्व-सर्पति तच्छीला-उत्सर्पिणी = उपर्युपरि धावमाना। सकलाऽतिशायिनी / महतां =मनस्विनां / प्रार्थना = अभिलाषः / इमे इतोऽपि महत्पदं कैवल्यादिकमभिलषन्तस्तपस्यन्तीति भावः / आकाशे = गगने / अर्थात्-स्वयमेव / वृद्धशाकल्यः-तापसविशेषः / को व्यापारो यस्यासौ तथा / किं करोतीत्यर्थः। आकर्ण्य = श्रवणमभिनीय / दक्षस्यापत्यं स्त्री दाक्षायणी, तया = अदित्या / पतिव्रतापुण्यं = पतिव्रताधर्मम् / अधिकृत्य = विषयीकृत्य / महर्षीणां पल्यस्तासां गणेन सहितायै / अस्यै =आदित्यै / तत् = पतिव्रतापुण्यम् / 'इति ब्रवीषि किमिति स्वयमेव शाकल्योक्तानुवादः। प्रतिपाल्योऽवसरो यस्यासौ प्रतिपाल्याआश्चर्यचकित हो रहा हूँ / अर्थात् भोग की सम्पूर्ण सामग्री की उपस्थिति और उसका त्याग-इन दोनों बातों को यहाँ एक साथ देखकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं है // 12 // __ मातलि-महात्माओं की इच्छा और प्रार्थना सदा ऊँची ही ऊँची बढ़ने वाली रहा करती हैं। अर्थात्-इन वस्तुओं के आनन्द से भी अधिक श्रेष्ठ ब्रह्मानन्द को प्राप्त करने के लिए ही ये लोग यहाँ ऐसी कठिन तपस्या कर रहे हैं ! [ कुछ चलकर स्वयमेव दूसरे के नाम से प्रश्नोत्तर करता हुआ कहता है हे वृद्ध शाकल्य ! इस समय भगवान् मारीच ( कश्यपजी) क्या कर रहे है ? ।(सुनने का सा अभिनय कर के-) हाँ, तो आप-क्या कह रहे हैं, कि'भगवती दाक्षायणी अदितिजी से पतिव्रता के धर्म और पुण्य आदि का प्रश्न करने पर, ऋषिपत्नियों से परिवृता भगवती दक्षपुत्री अदितिजी को उक्त पातिव्रत्यधर्म आदि का वे उपदेश दे रहे हैं /