________________ 447 ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाटीका-विराजितम् प्रतीच्छति / अनुरूपमपि औषधमातङ्कं निवर्तयति ] / राजा--(शोकनाटितकेन-) आमूलशुद्धसन्तति कुलमेतत्पौरवं प्रजावन्ध्ये / मय्यस्तमितमनायें देश इव सरस्वतीस्रोतः // 29 // (- इति मोहमुपगतः ) / पूर्व पुरुषाणां = पितृणाम् / प्रतीच्छति = गृह्णाति / अनुरूपमपि = स्वोचितमेव / अपिरेवार्थे / आतङ्क = रोगम् / एवञ्च विदूषक एव सान्त्वनेऽस्य समर्थो, नाऽहमिति भावः। आमलेति / आ मूलात् शुद्धा सन्ततिर्यस्य तत्-आमूलशुद्धसन्तति = पूरोरारभ्य आदितोऽपि अद्ययावत् अविच्छिन्नप्रवाहम् / एतत्-पौरवं = पूरुसम्बन्धि / कुलं = वंशः / अनायें = अनार्यजनसङ्कले / देशे = प्रदेशे / सरस्वत्याः = तन्नामिकायाः सुप्रसिद्धाया नद्याः / स्रोत इव = प्रवाह इव / प्रजया वन्ध्ये = सन्तानशून्ये / अतएव अनायेंपापे / पापाचारे / मयि = दुष्यन्ते / अस्तमितं = विच्छिन्नम् / सरस्वतीस्रोतोऽपि-आ मूलात् = प्रादुर्भावस्थलादारभ्य, शुद्धसन्तति = अविच्छिन्नधारं सत् / ( पुरु एव पौरवं = विपुलं च सत् -) अनाये, म्लेच्छबहुले अनृण हो सकते हैं / (मन ही मन-) ये तो मेरी बातें सुन ही नहीं रहे हैं। ठीक है, रोग के अनुरूप ही ओषधि रोग को हटाती है / अर्थात्-विदूषक ही इनको समझा सकते हैं, मैं दासी इनको समझा भी कैसे सकती हूँ ? / राजा-(शोक का अभिनय करता हुआ-) मूल पुरुष ( पूरु) से लेकर आज तक ( मेरे तक) शुद्ध = अविच्छिन्न, धाराप्रवाह से चला आता हुआ, यह पौरव वंश, संतान रहित मुझ अनार्य (पापी) को पाकर उसी प्रकार अस्त = लुप्त हो गया, जैसे-पापी म्लेच्छ देशों में जाकर विशुद्ध सरस्वती का प्रवाह लुप्त हो जाता है। [सरस्वती नदी अम्बाला के पास पर्वत से निकली हैं, वहाँ से बराबर बहती हुई, कुरुक्षेत्र में आकर, आगे बहावलपुर आदि म्लेच्छ पापी देशों में लुप्त होकर, फिर समुद्र के पास प्रकट हुई है। यह नदी कुरुक्षेत्र और मातृगया आदि में दृश्य है ] // 29 // [ राजा-मूर्छित हो जाता है ] /