________________ S:]. अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 45 मावलिः अथ किम् / क्षणाचायुष्मान्स्वाधिकारभूमौ वतिष्यते / राजा-(अधोऽक्लोक्य-) मातले ! वेगादवतरणादाश्चर्य्यदर्शनः संलक्ष्यते मनुष्यलोकः / तथाहिशैलानामवरोहतीव शिखरादुन्मजतां मेदिनी, पर्णाभ्यन्तरलीनतां विजहति स्कन्धोदयात्पादपाः। स्वस्याधिकारो यस्यां सा-स्वाधिकारा, चासौ भूमिश्च, तस्यां = स्वाधिकारभूमौ = भूर्लोके / . वर्तिष्यते = स्वनिवासं भूलोकं प्राप्स्यति / आश्चर्यदर्शनः= अद्भुतदर्शनः। शैलानामिति / उन्मजतां = प्रकटीभवतामिव क्रमशः स्पष्टं दृश्यमानानां / शैलानां = महागिरीणां / शिखरात् = अग्रभागात् / मेदिनी = भूमिः। अवरोहतीव = अवतरतीव / अधो गच्छतीव / पूर्वे तु दूरतया पर्वतशिखरलग्नेव भूरालक्षिता, इदानीं तु सान्निध्यात् पर्वतमेदिन्योः शनैः शनैर्दूरीभावो ज्ञायत इत्याशयः / पादपाः = मातलि-यह बात बिलकुल ठीक है। हम लोग मेघ मण्डल के ऊपर से ही अब जा रहे हैं। और शीघ्र ही आप-अपनी अधिकृत भूमि में-पृथ्वी मण्डल में ही-अपने को पाएँगे। - राजा-(नीचे की ओर देखकर ) हे मातले ! हमारे वेग से नीचे उतरने से यह मनुष्यलोक ( भूमण्डल ) हमें आश्चर्यजनक ( अद्भुत) रूप में ही दिखाई दे रहा है। जैसे, देखो यह पृथ्वीमण्डल-हिमालय आदि पर्वतों के शिखरों से नीचे उतरता हुआ सा मालूम हो रहा है। और ये वृक्ष भी-जो पहिले तो पत्तों में छिपे हुए से मालूम होते थे, वे ही अब धीरे-धीरे उनके पेड़ ( तना, पेड़ी) दिखाई देने से, पत्तों से निकलते हुए से मालूम हो रहे हैं। और ये नदियाँ भी-ज पहिले तो जहाँ-जहाँ उनके प्रवाह में-जल कुछ कम था, वहाँ-वहाँ-बीच बीच में