________________ ऽङ्कः ] 31 . अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 481 राजा-( विलोक्य-) नमोऽस्मै कष्टतपसे / मातलिः-( संयतप्रग्रहं रथं कृत्वा-) एतावदितिपरिवद्धितमन्दारवृक्षं प्रजापतेराश्रमं प्रविष्टौ स्वः / पक्षिकुलायैव्याप्तं / जटामण्डलं = जटाजूटं / बिभ्रत् = दधत् / स्थाणुरिवशुष्कवृक्ष इव / अचलः= निश्चलः / मुनिः = ( मराचिपुत्रो महर्षिः कश्यपो वा, अन्यो वा-) कश्चन तापसः / अर्कबिम्ब = सूर्यमण्डलम् / अभि = लक्ष्यीकृत्य / यत्र = यस्मिन् प्रदेशे-स्थितः / असौ मारीचाश्रम इति-योजना। ___ स्थाणुः = वृक्षोऽपि-वल्मीकाग्रनिमनकायः, सर्पत्वपरीतकोटरः, कण्ठे = कण्ठप्रदेशसमापे-जोर्णलतावलयेनाऽऽचितश्च,-पक्षिकुंलायनिचितं स्कन्धप्रसूतं जटानां = शिफानां मण्डलं दधदचलोऽर्कबिम्बाभिमुखस्तिष्ठति / ( कण्ठ = 'कन्न' 'पास' ) इति भाषा। स्थाणुपक्षे हि-उरः-कोटरं / कण्ठः-समीपं, जटाः-शिफा / अंसः = स्कन्धःइति विशेषतोऽर्थो ज्ञेयः। [परिकरश्लेषोपमानुप्रासाः। 'शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्']॥११॥ कष्टं तपो यस्य, तस्मै-कष्टतपसे = उग्रतपसे / संयताः प्रग्रहा यत्र, यस्य वा तंसंयतप्रग्रहं = नियमितरश्मिरज्जम् / एतौ = आवाम् / अदित्या परिवर्द्धिता मन्दारवृक्षा यत्र तम्-अदितिनामककश्यपपत्नीपरिवर्द्धितमन्दारतरुकल्पवृक्षादिशोभितम् / ने घोंसले बना लिए हैं, ऐसे कन्धे तक लटकते हुए जटा के मण्डल को (जटाजूट को) धारण किये हुए, स्थाणु ( सूखे वृक्ष ) की तरह निश्चल हो, सूर्य की ओर मुख करके खड़े हो कर (ये जहाँ) तपस्या कर रहे हैं इसी जगह भगवान् मारीच कश्यपजी का आश्रम है। // 11 // राजा-(देखकर ) इस प्रकार कष्टपूर्वक तपश्चर्या करने वाले इन मुनिजी को मेरा प्रणाम है। मातलि-(घोड़ों की लगाम खींचकर, रथ को खड़ा करके ) अब हम दोनों ही देवमाता अदितिजी से लगाए हुए मन्दार वृक्षों ( कल्पवृक्षों) से सुशोभित, प्रजापति कश्यपजी के आश्रम में पहुँच गये हैं। (हम कश्यपजी के आश्रम में अब प्रविष्ट हो गये हैं)।