________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 457 .. (सर्वे-सत्वरमुपसर्पन्ति ) / राजा-( समन्तादवलोक्य-) अये ! शून्यं खल्विदम् ! / (नेपश्ये-) भो ! परित्ताआहि परित्ताआहि / अहं तुमं घेक्खामि, तुमं मं ण पेक्खसि ! मज्जारगहिदो उन्दुरू विअ णिरासो झि जीविदे संवुत्तो। [भोः ! परित्रायस्व, परित्रायस्व / अहं त्वां प्रेक्षे। त्वं मांन प्रेक्षसे!। मार्जारगृहीत उन्दुरुरिव निराशोऽस्मि 'जीविते संवृत्तः] / राजा-भोस्तिरस्करिणीगर्वित ! मदीयमस्त्रमपि त्वां न पश्यति ? / स्थिरो भव / मा च ते वयस्यसम्पर्काद्विश्वासोऽभूत् / एष तमिघु सन्दधे मार्गम्। इदं = भवनं / बिडालेन = मार्जारेण / गृहीतः =धृतः। उन्दुरुरिव = मूषिक इव / जीवित = जीवने / निराशोऽस्मि = व्यपगताशो जातः / यथा मार्जारेण गृहीतो मूषिकः, स्वजीवने निराशो भवति, तथैवाहमपि सम्प्रति निराशोऽस्मि स्वजीविते इत्याशयः। __तिरस्करिणी नाम-अन्तर्धानविद्या / तया गर्वितः=मत्तः / तत्सम्बुद्धौ रूपम् / ते = तव / वयस्यस्य = माधव्यस्य / सम्पर्कात् = शरीरसंयोगात् / [ सब जल्दी जल्दी दौड़कर ऊँचे महल (ऊँचे बुर्ज ) की ओर जाते हैं ] / राजा-(चारों ओर देखकर ) हैं ! यह स्थान तो शून्य पड़ा हुआ है ! / यहाँ तो कोई भी नहीं है! [नेपथ्य में ] . हे मित्र ! मुझे बचाओ, मुझे बचाओ। हे मित्र ! मैं तो तुमको देख रहा हूं, पर तुम मझको नहीं देख रहे हो!। अब तो मैं बिल्ली से पकड़े गए चूहे की तरह ही, इस राक्षस से पकड़ा जाकर, अपने जीने से ही निराश हो गया हूं। राजा-अरे तिरस्करिणी विद्या ( अन्तर्धान विद्या ) के बल से गर्वित होकर छिपे हुए राक्षसाधम ! क्या मेरा अस्त्र भी तेरे को नहीं देखेगा ? / अवश्य 1 क्वचिन्न।