________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्ली-भाषाटीका-विराजित् 445 परिवर्जयिष्यति / तन्मेघच्छन्नाऽगारस्थितं निर्वाणसमर्थमार्यमाधब्यं गृहीत्वाऽऽगच्छ / प्रतीहारी–सुट्ठ दे भणिदं / (-इति निष्क्रान्ता)। [ सुष्ठु त्वया भणितम् (-इति निष्क्रान्ता)] राजा-अहो ! दुष्यन्तस्य संशयमारूढाः पिण्डभाजः ! / कुतः ?'अस्मात्परं बत यथाश्रुति संभृतानि, को नः कुले निवपनानि करिष्यतीति ? / नूनं प्रसूतिविकलेन मया प्रसिक्तं, धौतोऽश्रसेकमुदकं पितरः पिबन्ति // 28 // प्रवाहः = अश्रधाराऽऽसारः। संवृत्तः = जातः / बुद्धिपूर्वकं = स्वयं विचायव / परिवर्जयिष्यति = त्यक्ष्यति / निर्वाणसमर्थ = शोकापनोदकुशलम् / संशयं = पिण्डलाभसंशयम् / आरूढाः = प्राप्ताः / पिण्डमाजः = पितरः / वंशच्छेदशङ्कया पितरो मे नूनं चिन्तिताः स्युरिति भावः / / पितृचिन्तामेवाह-अस्मादिति / 'बत' इति खेदे / अस्मात् = दुष्यन्तात्परं / अतिमनतिक्रम्य-यथाश्रति = वेदोदितेन विधिना / सम्भृतानि = नानोपकरणयुतानि / परिपूर्णानि / पाठान्तरे-संहितानि = स्थापितानि / निवपनानि = किया। क्योंकि तुम ही देखो-महाराज के नेत्रों से आँसुओं की धारा अनवरत वह रही है / अथवा-महाराज इस सन्तान के अभाव के शोक को अपने से तो जल्दी नहीं छोड़ेंगे। अतः तुम मेघच्छन्न ( ऊची बुर्ज वाले ) महल से आर्य माधव्य को ही बुलाकर, सङ्ग लेकर शीघ्र आओ। वे ही इनके इस शोक को शान्त कर सकते हैं। राजा-अहो ! मुझ दुष्यन्त के पिण्डभागी पितृगण 'अब उनको आगे पिण्ड कौन देगा'-इस संशय और चिन्ता को प्राप्त हो रहे हैं। क्योंकि सन्तान से रहित मेरे द्वारा विधिपूर्वक दिए गए तर्पण के जल को, हमारे . 1 'संहितानि' पा०। 2 'घौताश्रुशेषम्' पा० /