________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 443 प्रतीहारी–पडिहदं अमङ्गलं / [प्रतिहतममङ्गलम् / राजा--धिङ्मामुपनतश्रेयोऽवमानिनम् / सानुमती--असंसरं पिअसहीं ज्जेव हिअए कदुअ णिन्दिदो अणेण अप्पा। [असंशयं प्रियसखीमेव हृदये कृत्वा निन्दितोऽनेनाऽऽत्मा ] / राजा-- संरोपितेऽप्यात्मनि, धर्मपत्नी त्यक्ता मया नाम कुलप्रतिष्ठा। कल्पिष्यमाणा महते फलाय, वसुन्धरा काल इवोप्तवीजा // 27 // प्रतिहतमिति / दूरे भवत्वित्यर्थः / राज्ञोऽमङ्गलाऽऽशंसनं श्रुत्वा 'शुभं भवत्विति प्रतिहार्या वचः / हृदये कृत्वा = मनसि विचिन्त्य / संरोपित इति / काले = बीजारोपणयोग्ये समये / उप्तानि बीजानि यस्यां सा तथा कृतबीजवपना / अत एव-महते = अनल्पाय / फलाय = लाभाय / कल्पिष्यमाणा = सम्पत्स्यमाना। वसुन्धरेव - भूमिरिव / मया आत्मनि संरोपितेऽपि = वीर्यनिषेकात् गर्भरूपेण आत्मनि तस्यां योजितेऽपि / 'आत्मा वै जायते प्रतीहारी-शिव शिव | यह अमङ्गल दूर हो। यह पाप शान्त हो। अर्थात्-महाराज ! ऐसी अमङ्गल की बात तो आप मुख से भी न निकालें / राजा-स्वतः प्राप्त हुए कल्याण (शुभ) का (गर्भवती भार्या शकुन्तलाका) तिरस्कार करने वाले मुझको धिक्कार है ! सानुमती-मालूम होता है, अवश्य ही इस राजा ने मेरी सखी शकुन्तला को लक्ष्य करके ही इस प्रकार अपनी ( आत्मा की ) निन्दा की है। राजा-उचित समय में ही जिसमें बीजों का वपन कर दिया गया हो और जो महान् फल को उत्पन्न करने वाली हो, ऐसी पृथ्वी की तरह, जिसमें