________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् . भेदाद् ध्रुवोः कुटिलयोरतिलोहिताक्ष्या, ____ भग्नं शरासनमिवाऽतिरुषा स्मरस्य // 25 // (प्रकाशम् -) ___ भद्रे ! प्रथितं दुष्यन्तस्य चारतं, प्रजास्वपीदं न दृश्यते / रहः = एकान्ते / वृत्तं = सम्पन्नं / प्रणयं = स्नेहम् / दारसङ्गुहवा / [ रहःप्रणयम् = एकान्ते वृत्तं प्रणयं, परिणयं = विवाहं वा] / अप्रतिपद्यमाने = अस्वीकुर्वाणे / मयिसति / मयि-विषये वा / अत्यन्त रुड अतिरुट , तया-अतिरुषा = अतिक्रोधेन / यद्वा-अत्यन्तं रुड् यस्याः सा तया-अतिरुषा = अतिक्रोधया तया भनमित्यर्थः / अत एव अतिलोहिते अक्षिणी यस्याः सा अतिलोहिताक्षी, तया-अतिलोहिताक्ष्या = अत्यारक्तनयनया / कुटिलयोः = स्वभावादतिवक्रयोः / भ्रुवोर्भेदात् = भ्रूभङ्गच्छलेन / भृकुटीव्याजेन / स्मरस्य = कामस्य / शरासनं = कार्मुकं / भग्नमिव / अत्र सहजकुटिलयोर्बुयोः स्मरधनूरूपयोभ्रंकुटिबन्धे उत्क्षेपणास्मरधनुर्भङ्ग उत्प्रेक्षितः / आरक्तनयनादिकं हि अकृत्रिमे क्रोध एव भवति / .[ उत्प्रेक्षा / काव्यलिङ्गम् अनुप्रामः / 'शकुन्तला-सरोष'-मित्यारभ्य-संफेटो नाम विमर्शमन्ध्यङ्गम्, 'सफेटो रोषभाषण'मिति विश्वनाथोक्तं च दर्शितम् / 'वसन्ततिलका वृत्तम्' ] // 25 // चरितं = शीलं / प्रथितं = प्रसिद्धम् / इदं = वञ्च कत्वं तु / प्रजास्वपि = मम साधारणेषु जनेष्वपि न संभाव्यते / कथं पुना राजनि मयि वञ्च कतायाः संभावना / हो जाने पर और एकान्त में की हुई प्रणय (अनुराग, गान्धर्वविवाह आदि) की बातों को स्वीकार नहीं करने पर, इसने लाल 2 नेत्र करके, अति कुटिल अपनी दोनों भौंहों को टेढ़ा करके, मानों क्रोध से कामदेव का धनुष ही तोड़ दिया है। अर्थात् - मैंने विवाह सम्बन्ध आदि की बात जब नहीं स्वीकार की, तो इसने क्रोध से लाल 2 नेत्र करके, कामदेवके धनुषकी तरह अपनी टेढो भृकुटियों को चढा करके ( और भी टेढ़ा करके ) मानों कामदेव का धनुष ही तोड़ दिया है। ( इसकी-भ्रकुटी'मानों कामदेव का धनुष ही है ) // 25 // (प्रकट में-) हे सुमगे ! दुष्यन्त का विशुद्ध पवित्र चरित तो जगद्विदित है / मेरी तो बात ही क्या है, मेरी साधारण प्रजा में भी ऐसा छल-कपट-अन्याय किसी को देखने को नहीं मिलेगा।