________________ ऽङ्कः] . अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 389 कञ्चकी--( कर्ण दत्वा-) अये ! इत एवाऽभिवतते देवः / तद्गच्छतं स्वकर्माऽनुष्ठानाय / उभे--तह / ( -इति निष्क्रान्ते ) / [तथा ( इति निष्क्रान्ते)] / (ततः प्रविशति पश्चात्तापसदृशवेषो राजा, विदूषकः, प्रतीहारी च ) / कञ्चकी--( राजानं विलोक्य-) अहो ! सर्वास्ववस्थासु रामणीयकमाकृतिविशेषाणाम् / तथा ह्येवं वैमनस्यपरीतोऽपि प्रियदर्शनो देवः। य एषः - इत एव = अमुमेव वनोद्देशम् / अभिवर्तते = आगच्छति / द्वितीयान्तासार्वविभक्ति कस्तसिल / स्वस्य कर्मणः अनुष्ठानायं = स्वस्वोचित कार्यसम्गदनाय / ___ पश्चात्तापस्य सदृशो वेषो यस्यासौ-पश्चात्तापसदृशवेषः = पश्चात्तापानुरूपवेषधारी / पश्चातापं नाटयन्निति यावत् / सर्वास्ववस्थातु = दुःखसुखादिशालिष्ववस्थान्तरेष्वपि / रमणीयस्य भावो. रामणीयकं = रम्यत्वम् / आकृतिविशेषाणाम् = आकृतिविशेषशालिनां महात्मनाम् / सुन्दराणाम् / अहो! इति विस्मये / एवं वैमनस्येन परातोऽपि-वैमनस्यपरीतोऽपि = विरहोत्कण्ठितोऽपि / खिन्नोपि / उद्वेगाकुलोऽपि / प्रियं दर्शनं यस्यासौ प्रियदर्शनः = मनोहराऽऽकृतिः / दर्शनीयः। _ 'य एष' इति वक्ष्यमाणश्लोकेनाऽन्वेति / कचुकी-(विदूषक की आवाज.को कान लगाकर सुनकर ) ओह ! महाराज तो इधर ही आ रहे हैं। अतः तुम लोग अपने 2 काम पर जाओ। ( अर्थात् यहाँ से जल्दी हटो)। दोनों चेटियाँ-ठीक है, हम जाती हैं / ( दोनों जाती हैं)। [ पश्चात्ताप के अनुरूप दुःख-सन्ताप सूचक वेष धारण किए हुए राजा का, विदूषक का, और प्रतोहारी ( छड़ी लिए हुए द्वारपाल स्त्री) का प्रवेश] / कचुकी-( राजा को देखकर ) अहो ! सुन्दर आकृति वाले लोग तो दुःख व सुख, सभी अवस्थाओं में रमणीय ही मालूम होते हैं। जैसे-इस प्रकार वैमनस्य ( उद्वेग पश्चात्ताप, खेद, अन्यमनस्कता आदि ) से व्याकुल होते हुए भा ये महाराज कैसे सुन्दर मालूम हो रहे हैं ! / क्योंकि 1 'स्वस्वकर्मानुष्ठानाय' पा० / 2 'वेशो' /