________________ 408 अभिज्ञानशाकुन्तलम्-- [षष्ठोसानुमती-जइ अण्णहत्थगदं भवे, तदो सच्चं शोअणीअं भवे / सहि ! दूरे वट्टसि, एआइणी ज्जेव कण्णसुहाई अणुभवेमि ! / .. [यद्यन्यहस्तगतं भवेत्ततः सत्यं शोचनीयं भवेत् / सखि ! दूरे वर्त्तसे / एकाकिन्येव कर्णसुखान्यनुभवामि / विदषकः -भो ! इअं णाममुद्दा केण उद्देसेण भवदा तत्थ भोदीए हत्थसंसग्गं पाविदा ? / [ भोः, इयं नाममुद्रा केनोद्देशेन भवता तत्रभवत्या हस्तसंसर्ग प्रापिता ?] / सानुमती-मम वि कोदूहलेण,वावारिदो एसो / [ ममोऽपि कौतुहलेन व्यापारित एषः] / अन्यहस्तगतं = दुष्यन्तेतरहस्तपतितं चेत् / सत्यम् = अवश्यं / सखि ! - हे शकुन्तले ! कर्णसुखानि = त्वदनुरागसूचकानि श्रोत्रसखानि इमानि राजवचनानि / उद्देशेन = अभिप्रायेण / 'उद्देश्येनेति' पाठे-प्रयोजनेनेत्यर्थः / 'उदातेन' इति पाठे-उद्घातेन = उपक्रमेण, उद्देश्येन, अभिप्रायेण / 'उद्धातः कथ्यते धीरैः स्खलिते, समुपक्रमे' इति धरणिः / व्यापारित इति / ममाप्यस्मिन् प्रश्नेऽभिलाष इत्याशयः। नाममुद्रा = अङ्गुलीयकम् / उद्देशेन = अभिप्रायेण / हस्तसंसर्ग = सानुमती-यदि यह अंगठी राजा के सिवाय किसी दूसरे के हाथ में चली जाती, तब तो अवश्य शोचनीय हाती / पर यह तो राजाके ही हाथ में आ गई है, अतः यह अब शोचनीय नहीं रही। हे सखि ! शकुन्तले ! तूं दूर बैठी है। यहाँ मैं अकेली ही इन कर्णसुखप्रद बातों को सुन रही हूँ। ( अर्थात् राजा की इन मधुर, स्नेहमय बातों को यदि शकुन्तला स्वयं अपने ही कानों से सुनती तो उसे कितना आनन्द आता!)। विदूषक-हे मित्र ! आपके नामाक्षरों से युक्त इस अंगठी को आपने किस उद्देश्य से श्रीमती शकुन्तला के हाथ में पहिरा दिया था ? / ( अंगुली में क्यों पहिराई थी ? ) / सानुमती-हाँ, यही कौतूहल तो मुझे भी हो रहा था / अतः यह तो मेरे ही मन की बात मानों पूछ रहा है / 1 अपिः क्वचिन्न / 2 'आकारितः' पा० /