________________ [ षष्ठो 432 अभिज्ञानशाकुन्तलम् m राजा-किमिदमनुष्ठितं पौरोभाग्यम् ? / दर्शनसुखमनुभवतः, साक्षादिव तन्मयेन हृदयेन / स्मृतिकारिणा त्वया मे, ___ पुनरपि चित्रीकृता कान्ता!॥२४॥ ल्पानुसारी / चित्रेऽपि प्रियां भावयन् / एषः = राजा / किं पुनः ! / यदा अहंस्वस्थबुद्धिः = सानुमत्यपि, चित्रे-सत्यं शकुन्तलैवेयमिति भ्रान्ता, विदूषकवचनादेव चेदानीमेव प्रतिबुद्धा, तर्हि शकुन्तलागतमनोरथो राजा भ्रान्तश्चेत्तत्र किमु वक्तव्यमित्याशयः।ममापि चित्रे यदि शकुन्तलेति भ्रान्तिर्जाता, तर्हि तद्रसाविष्टचेतसोराज्ञस्तु भ्रान्तिरुचितैवेति यावत् / पौरोभाग्यं = दोषैकदर्शित्वं / सूचकता। 'दोषैकहपुरोभागी'त्यमरः / अस्मिन्हि चित्रे-'नेयं वस्तुतः शकुन्तले' ति-दोषः कथमुद्भावितस्त्वयेत्युपालम्भः / नेदमुचितमाचरितं मत्सुखस्वप्नं विनाशयता त्वयेति यावत् / ___तदेवाह-दर्शनेति / तद्गतेन = प्रियागतेन / हृदयेन = मनसा / साक्षादिव दर्शनसुखमनुभवतः= प्रियादर्शनानन्द-भावयतः / मे = मम / स्मृतिकारिणा= 'चित्रमेत' दिति स्मरणं ननयता / त्वया = विदूषकेण / मम कान्ता-पुनरपि = भूयोऽपि / चित्रीकृता = चित्रतां प्रापिता / 'सत्यं मम प्रियैषे' ति मम भावनया के पीछे उन्मत्त हुए इस राजा की तो बात ही क्या है ? / अर्थात्-इस चित्र को देखकर मुझे भी जब सच्ची शकुन्तला का इसमें भ्रम हो रहा था तो शकुन्तला के पीछे (उसके विरह) विक्षिप्त हुए इस राजा को यदि सच्ची शकुन्तला का भ्रम इसमें हुआ है, तो आश्चर्य ही क्या है ? / राजा-मेरी प्रिया को चित्र बताकर तुमने मेरे सुख स्वप्न को भङ्ग करने की दृष्टता (चुगलखोरी ) क्यों की ? / अर्थात्-इसे चित्र बताकर मेरा सुख स्वप्न भङ्ग कर तुमने बहुत ही अनुचित कार्य किया है। ___ क्योंकि साक्षात् प्रिया को ही सामने उपस्थित हुई समझकर तन्मय हृदय से उसके दर्शन का सुख अनुभव करते हुए मुझको-'यह तो चित्र है' ऐसा स्मरण दिलाते हुए तुमने मेरी प्रिया को फिर चित्र ही बना दिया ! / अतः तुमने यह बड़ी दुष्टता, सलता एवं सूचकता का ही काम किया है। अर्थात्