________________ www ऽङ्कः] 28 अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 433 (इति बाष्पं विसृजति ) / सानुमती-पुब्वापरविरुद्धो अपुव्वो एसो विरहिमग्गो। [ पूर्वाऽपरविरुद्धोऽपूर्व एर्ष विरहिमार्गः] / राजा-वयस्य ! कथमेवविश्रामं दुःखमनुभवामि ? / प्रजागरात्खिलीभूतस्तस्याः स्वमसमागमः / बाष्पस्तु न ददात्येनां द्रष्टुं चित्रगतामपि ! // 5 // मत्प्रियाभूतं चित्र 'नेयं शकुन्तला, किन्तु तच्चित्र'मिति कथनेन पुनस्त्वया मम स्मृतिमुपनयता चित्रतां नीतमिति भावः / [ उत्प्रेक्षाऽनुप्रासौ ] // 24 // पूर्वाऽपरविरुद्धः = असङ्गतः / पूर्व चित्रत्वेन ज्ञानं चित्रस्य, स्वयमेव लेखनात् / पश्चात्तस्यैव चित्रस्य सत्यशकुन्तलात्वेन ज्ञानं, भ्रान्तिनिराकरणेऽपि च यत्रोपालम्भ इति, पूर्व तां तथाऽनाहत्येदानीं मिथ्या परिदेवनमिति वा-पूर्वाऽपरविरोधो ज्ञेयः। विरहिमार्गः = वियोगिनां पन्थाः। विरहिदशा वा / . न विश्रामो यस्य तत्तथा = अपारम् / अनवसितम् / अनन्तमिति यावत् / प्रजागरादिति / तस्याः = मम प्रियायाः / स्वप्नसमागमः = स्वप्ने दर्शनं तु / प्रजागरात् = अनिद्रातः / खिलीभूतः = उपहतः / नष्टः / अनिद्रया विनाशितः। अब तक जिसे मैं अपनी प्रिंया समझ कर प्रसन्न हो रहा था, उसे तुमने चित्र बताकर, मेरा सुख स्वप्न ही भङ्ग कर दिया--यह बड़ा अन्याय तुमने किया / हाय ! / // 24 // [ आँसू बहाता है, रोता है / सानुमती-विरहियों का मार्ग भी पूर्वापर विरुद्ध एवं पागलपन से भरा हुआ होने से अपूर्व ( अद्भुत ) ही होता है / अर्थात्-चित्र को यदि चित्र कह दिया तो क्या अनुचित किया ? / पर स्वयं चित्र को लिखकर भी, उसे भ्रमवश सच्ची प्रिया समझने वाले इस राजा के कार्य तो पूर्वापर विरुद्ध, एवं पागलपन के ही हो रहे हैं। राजा-हे मित्र ! मेरे दुःख का तो किसी प्रकार अन्त ही नहीं दीखता है, और मैं इस विरहजन्यं अपार दुःख को-जिसका कथमपि अन्त मालूम नहीं पड़ रहा है-भोग रहा हूँ। क्योंकि 1 'एव विरहमार्गः' पा०।