________________ 400 __ अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठोतदो से भत्तुणो 'बहुमुहं अणुराअं णिवेदइस्सं (-इति तथा कृत्वा स्थिता ) / [लतासंश्रिता प्रेक्षिष्ये तावत् प्रियसख्याः प्रतिकृतिम् / ततोऽस्या भर्तुबहुमुखमनुरागं निवेदयिष्यामि ] / (-इति तथा कृत्वा स्थिता ) / __राजा--(निःश्वस्य-) सखे ! सर्वमिदानी स्मरामि शकुन्तलायाः प्रथमदर्शनवृत्तान्तम् / यं किल कथितवानस्मि भवते / स भवान् प्रत्यादेशमये मत्समीपगतो नाऽऽसीत् / किन्तु पूर्वमपि न त्वया कदाचित् सङ्कीर्तितं तत्रभवत्या नामादिकम् ! / कच्चिदहमिव विस्मृतवांस्त्वमपि ? / सोनुमती--अदोजेव महीवदिहिं खणम्पि सहिअआओ सहाआओ ण विरहिदब्बाओ। लतासंश्रिता = योगशक्त्या लतानिविष्टा / सख्याः = शकुन्तलायाः। प्रतिकृति = प्रतिमाम् / अस्याः = अस्यै / बहुमुखं = अनेकप्रकारम् / प्रवृद्धञ्च / प्रथमवृत्तान्तम् = प्रारम्भिकं वृत्तान्तं / भवते = विदूषकाय। प्रत्यादेशवेलायां = शकुन्तलानिराससमथे। पूर्वमपि = आश्रमात्-प्रतिनिवृत्तेनेतः पूर्व त्वया कदाचिदपि / तत्र भवत्याः = शकुन्तलायाः। नाम = नामधेयादिकम् / सङ्कीर्तितम् = उच्चारितम् / सखी शकुन्तला की प्रतिकृति ( तसवीर ) को देखंगी। फिर अपनी प्रियसखी शकुन्तला को उसके पति का.उसमें जो बहुमुख ( खूब बढा हुआ, उत्तम प्रकार का ) अनुराग है, उसको जाकर सुनाऊंगी। राजा-(दीर्घ श्वास लेकर ) हे सखे ! अब मुझे शकुन्तला के पहिले पहल देखने से लेकर आज तक का सब वृत्तान्त स्मरण आ रहा है। उस वृत्तान्त को मैंने तुमसे भी आश्रम में कहा था। परन्तु तुम तो उस समय-जब कि मैंने शकुन्तला का प्रत्याख्यान (उससे विवाह करने का निषेध) किया था, मेरे पास थे ही नहीं / परन्तु इससे पूर्व भी तो कभी तुमने शकुन्तला का नाम तक भी मेरे सामने नहीं लिया ! / क्या मेरी ही तरह तुम भी उसको भूल गए थे ? / सानुमती-इसीलिए तो राजाओं को अपने सहृदय, सच्चे हितैषी, सहा 1 'बहुमदं अणुराअं' [ 'बहुमतमनुराग']-पा० / 2 'मिश्रकेशी' पा० /