________________ ऽङ्कः ] 26 अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 401 [अत एव महीपतिभिः क्षणमपि सहृदयाः सहाया न विरहितव्याः]। विषदक:-ण विसुमरामि, किन्तु सव्वं कहिअ अवसाणे उण तुए भणिदं-'परिहासविजप्पिओ एसो ण भूदत्थोत्ति / मएवि मन्दबुद्धिणा तधा जेव गहिदं / अधवा भविदव्वदा वस्तु एत्थ बलबदी। [न विस्मरामि / किन्तु सर्व कथयित्वाऽवसाने पुनस्त्वया भणितम्-'परिहासविजेल्प एप, न भूतार्थ' इति / मयापि मन्दबुद्धिना तथैव गृहीतम् / अथवा भवितव्यता खल्वत्र बलवती] / सानुमती-एवं पणेदं। [एवं न्वेतत् / 'अहमिव त्वमपि शकुन्तलां विस्मृतवानसि कचिदिति-योजना / सहृदयाः = साधवो हितैषिणः / सहायाः = सखायः, परिचारका वा, न विरहितव्याः = न दूरीकरणीयाः। अवसाने = परिसमाती। परिहामविजल्पः = हास्येनोक्तम् / न भूतार्थः = न सत्यं वचः / 'वृते मादावृते भूतम्' इत्यमरः / आख्यातं = कथितं / मन्दबुद्धिना मया। तथैव = परिहासविजल्यतया / गृहीतं = स्वीकृतम् / ज्ञातम् / अथवा = पक्षान्तरे। भवितव्यता = अवश्यम्भाविता हि भावानां / बलवती प्रबला भवति / एवं (नु) एतत् = सत्यमवैतत् / यकों को प्रतिक्षण ( हर समय ) अपने पास ही रखना चाहिए। यदि विदूषक उस समय राजा के पास रहता तो राजा से ऐसी भूल कभी नहीं होने पाती / विदषक-नहीं, नहीं, मैं उस बात, को भूल नहीं गया था। परन्तु सब बातें कहकर आप ने अन्त में मुझसे कह दिया था कि-'हे मित्र ! यह सब जो शकुन्तला के विषय में मैंने तुमसे कहा हैं केवल उपहास (हँसी, मजाक ) ही है, इसमें सच्ची बात कुछ भी नहीं है'। और मैंने भी अपनी मन्दबुद्धि के कारण आपके उस कहने पर विश्वास कर लिया। इसीलिए मैंने आपके सामने शकुन्तला की पुनः कभी चर्चा नहीं की। अथवा-इसमें केवल भवितव्यता ( भावी = होनहार ) ही प्रबल थी-यही कहना पड़ता है, नहीं तो ऐसी भारी भूल क्या कभी किसी से संभव हो सकती है ? / सानुमती-यही बात सत्य है, भवितव्यता (भावो ) बड़ी प्रबल होती है / होनहार होकर ही रहती है। इसमें इस राजा का कुछ भी दोष नहीं है। . 1 'विजल्पित एषः' पा० / 2 'मृत्पिण्डबुद्धिना' / 3 'एवमेतत्' पा० /