________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 357 राजा- भगवन् ! प्रागेवाऽस्माभिरेषोऽर्थः प्रत्यादिष्टः / किं मृषा तर्केणाऽन्विष्यते / विश्राम्यतु भवान् / / पुरोधाः-विजयस्व / (-इति निष्क्रान्तः)। राजा-वेत्रवति ! पर्याकुलोऽस्मि / शयनोयगृहमार्गमादेशय / प्रतीहारी–इदो इदो देवो। [इत इतो देवः] राजा-(परिक्रम्य, स्वगतं-) कामं प्रत्यादिष्टां स्मरामि न परिग्रहं मुनेस्तनयाम् / बलवत्तु दूयमानं, प्रत्याययतीचे मे हृदयम् // 33 // एषोऽर्थः = एष शकुन्तला प्रसङ्गः / 'नेयमस्मत्परिणीते'ति रीत्या / अस्माभिः = मया / प्रागेव = पूर्वमेव / प्रयादिष्टः = प्रत्याख्यातः / मृषा = मुधैव / काकदन्तपरीक्षणवद्वथैव भवता / तर्केण = ऊहेन / किं = किमिति / अन्विष्यते = गवेष्यते / किमत्र वितणेत्याशयः / पर्याकुलः = श्रान्तः / आदेशय = निर्दिश / सूचय / काममिति / यद्यपि-प्रत्यादिष्टां = मया स्पष्टं निराकृतां / भार्यात्वेनाऽनङ्गी राजा- हे भगवन् ! मैंने तो इस बात का 'यह मेरी स्त्री नहीं है'-इस प्रकार पहिले ही खण्डन कर दिया है। अतः अब आप इस पर ( शकुन्तला के विषय में ) तर्क लगा कर, इसकी वृथा गवेषणा क्यों करते हैं / इस बात को ही छोड़िए / शान्ति से बैठिए / जाइए विश्राम करिए। पुरोहित-महाराज विजयी हों। ( जाता है)। राजा-हे वेत्रवति ! मैं बहुत व्याकुल और क्लान्त हो रहा हूं / अतः शयनकक्ष का मार्ग मुझे दिखला / प्रतिहारी-(स्त्री सिपाही ) महाराज ! इधर से पधारिए, इधर से / राजा-(कुछ चलकर मन ही मन ) / यद्यपि उस मुनि की पुत्री शकुन्तला के साथ -जिसका मैंने स्पष्ट 1 'मां हृदयम्' पा०।