________________ 366 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठो जालकः—णं अशलोक्शप्पणीआ लाआणो होन्ति / [नन्ववसरोपसर्पणीया राजानो भवन्ति ] / सूचक:---फुल्लन्ति ने अग्गहत्था अस्स' बधात्थं सुमनसो विगद्धम् / [ स्फुरतो मेऽग्रहस्तीवस्य वधार्थ सुमनसः पिनद्भूम] / धीवरः--णालिहदि भावे अकालगमालणे भाअविहुँ / / [ नाऽर्हति भावोऽकारणमारणं आवयितुम् / / जालुकः--(विलोक्य-) एशे अह्मणं इश्शाले पत्ते गेलिअ लाअशाशणं आअच्छदि / शम्पदं एशे शउलाणं मुहं पेक्खद, अहवा गिदशिआलाणं बली होदु। चिरयति = विलम्बते। अवसरे सत्युमसर्पणीयाः-अवसरोपसर्पणीयाः = सत्यबसरे दर्शनीयाः / न हि राज्ञो दर्शनं भृत्यैः सर्वदा लब्धं शक्यमत एक विलम्ब इत्याशयः। भावयितुं = चिन्तयितुम् / विचारथितुम् / शुनो मुखं द्रक्ष्यति = जालुक-अरे भाई ! राजा लोगों का मिलना तो मौके से ही होता है / इसमें देर लगाना तो साधारण बात है। सूचक-इसको फांसी के तख्ते पर चढ़ाने के लिए और वध्य चिन्ह स्वरूप माला पहिराने को, मेरे हाथ फड़फड़ा रहे हैं / (पहिले समय में जिसको फाँसी व शूली से प्राण दण्ड होता था, उसको लाल फूलों की माला पहिराई जाती थी-यह पुरानी प्रथा थी)। अर्थात्-इस धीवर को चोरी के अपराध में प्राणदण्ड होना निश्चित है, और मैं भी इसको वध्यचिन्ह स्वरूप माला पहिराने के लिए उतावला हो रहा हूं। कर कोतवाल साहब आवें, और कब इसको लाल माला पहिराऊँ। धीवर-भाव ! ( बाबूजो!) बिना अपराध ही मुझे मारने की बात आपको नहीं सोचनी चाहिए। जालुक-(सामने देखकर-) यह देखो, हमारे मालिक (कोतवाल साहब) 1 'इमं गण्ठिच्छेदअं बाबादिदुम्' / [इमं ग्रन्थिच्छेदकं व्यापादयितुम्'] पा० /