________________ 344 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [पञ्चमो शकुन्तला तुझे ज्जेव पमाणं, जाणध धम्मथिदिञ्च लोअस्स / . . लज्जाविणिज्जिदाओ जाणन्ति ण किम्पि महिलाओ ! // 26 // सुष्ठु दाव अत्तच्छन्दाणुचारिणी गणिआ समुवस्थिदा ! / [ यूयमेव प्रमाणं, जानीथ धर्मस्थितिञ्च लोकस्य / लज्जाविनिर्जिता जानन्ति न किमपि महिला: ? // 26 // __ यूयमेवेति / यूयमेव = इहतु भवन्त एव / प्रमाणं = प्रमाणीभूताः। निर्णायकपदवीमुपारूढाः। राजत्वात् / किञ्च लोकस्य = जगतः / धर्मस्य स्थिति = धर्मस्य पालनं, धर्ममर्यादां वा। यूयमेव जानीथ = भवन्त एव विदुः / त्वमेव वेत्थ / लजया विनिजिताः = लजापरवशाः / महिलाः = मादृश्यः कुलाङ्गनाः / किमपि न जानन्ति / भवन्तः परवञ्चकाः पण्डितंमन्या एव धर्मनिर्णतारो, भवन्तएव लोकव्यवहारविदश्च / याश्च लजाधनाः कुलमर्यादारक्षिकाः सरला मादृश्यः स्त्रियस्ता न किमपि जानन्तीतिअहो तवेयं धारणेति उपालम्भकुटिलं शकुन्तलावचः। [अप्रस्तुतप्रशंसा / व्याज. स्तुतिः / 'आर्या' ] // 26 // सुष्ठ = युक्तम् / आत्मनश्छन्देनानुचरति-तच्छीला-आत्मच्छन्दानुचारिणी = स्वेच्छाचारिणी। गणिका = वेश्या / समुपस्थिता ? = भवदन्तिकं प्राता कि.मु 1 / किमहं गणिका, यदेवं मां प्रति त्वमनार्य भाषसे ! इलाशयः / 'सुष्ठ तावदत्र स्वच्छन्दचारिणी कृताऽस्मि, याऽहमस्य पुरुवंशप्रत्ययेन मुखमधोह्रदयस्थित शकुन्तला-आपही एक प्रामाणिक और सच्चे हैं, तथा आप ही तो एक लोगों की धर्म स्थिति ( धर्म की मर्यादा ) के जानकार हैं। लज्जा से परवश, स्वभाव से ही लजालु, हमारी ऐसी सरल प्रकृतिवाली बेचारी स्त्रियाँ धर्म की स्थिति और उचित-अनुचित को थोड़े ही जानती है ? / अर्थात्-मैं लज्जा परायणा महिला तो झूठी हो गई, और वञ्चक शिरोमणि तुम सच्चे बन गए। अपने मन में बड़ा कौन नहीं बनता है ? / अपने मनमें तो सभी बड़े हैं। भाव-तुम नितान्त झूठे हो, और अन्याय करने पर उतारू हो रहे हो, जो इस प्रकार लज्जावती स्त्री की प्रतिष्ठा और इज्जत भङ्ग कर रहे हो // 26 // ... और आपने मुझे भी क्या अपने मनसे चलने वाली, स्वेच्छाचारिणी कुलटा