________________ 236 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थोअनसूया-सहि ! एहि, देबकज्जं दाव से णिव्वुत्तेह्म। (-इति परिक्रामतः ) / [ सखि ! एहि, देवकार्य तावदस्या निर्वतयावः (-इतिपरिक्रामतः) / प्रियंवदा-( अवलोक्य-) ! अणसूये / पेक्ख दाव वामहत्थविणिहिद वअणा आलिहिदा विअ पिअसही तग्गदाए चिन्ताए अत्ताणम्पि ण विभावेदि, कि उण आगन्तुअं!। [ (अवलोक्य-) अनसूये! प्रेक्षस्व तावत्,-वामहस्तविनिहितवदना, आलिखितेव प्रियसखी तद्गतया चिन्तया आत्मानमपि न विभावयति, किं पुनरागन्तुकम् / योजना / पाठान्तरे-तस्मिन् = अङ्गुलीयके सति-स्वाधीनोपाया = (स्वपरिचयदाने) शापविगमे च स्वायत्तसाधना। अस्याः = शकुन्तलायाः। देवकार्य = सौभाग्यदेवीपूजनं / वामहस्ते विनिहितंवदनं यया सा-वामहस्तविनिहितवदना = वामकरतलनिविष्ट कपोला। आलिखितेव = चित्रितेव / तद्तया = दुष्यन्तगतया। आत्मानमपि = स्वमपि, स्वतनुमपि च / उसको दिखाने के लिए शकुन्तला के स्वाधीन रहेगा / अर्थात्- उसकी दी हुई अंगठी को दिखाकर ही शकुन्तला उस दुष्यन्त को अपनी याद दिला सकेगी। अनसूया-हे सखि ! आओ, अब इस ( शकुन्तला ) के सौभाग्य देवताओं की पूजा के आवश्यक कार्य को हम लोग सम्पन्न करें। (दोनों कुछ चलती हैं) प्रियंवदा-( देखकर ) हे अनसूये ! देख तो, यह प्रियसखी शकुन्तला अपने बाएँ हाथ की हथेली पर अपना गाल रखकर, चित्र लिखित सी होकर अपने प्यारे की चिन्ता में ऐसी तल्लीन हो रही है, कि-अपने को भी यह नहीं जान रही है, ( अपने को ही भूल रही है, ) तब अतिथि की तो भला बात ही क्या है ? / अर्थात्-यह इतनी बेसुध हो रही है, कि-इसे अपने शरीर की भी सुध नहीं है, अतिथि दुर्वासा को यह देखती और उनका सत्कार करती-यह तो नितान्त ही असम्भव है।