________________ 292 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [पञ्चमोकाले गते बहुतिथे मम सैव जाता, प्रस्थानविक्लवगतेरवलम्बनाय ! // 1 // यावदभ्यन्तरगताय देवाय स्वयमनुष्ठेयमकालक्षेपार्ह निवेदयामि / ( स्तोकमन्तरं गत्वा-) किं पुनस्तत् ? (विचिन्त्य-) आं ज्ञातम् ! 'कण्वशिष्यास्तपस्विनो देवं द्रष्टुमिच्छन्ति' इति / कृतेन = नियुक्तेन मया / आचार इति = प्रक्रियेति, परम्परागता राजभृत्यमर्यादेय'मिति हेतोर्या वेत्रयष्टिः = वेत्रलता / मया गृहीता = आलम्बिता / शक्तेनापि मर्यादामात्रमवेक्ष्य प्रक्रियामात्रनिर्वाहार्थं या यष्टिः प्रौढावस्थायां मया धृताऽऽसीत्-सैव वेत्रलता-सम्प्रति बहुतिथे = बहूनां पूरणे-बहुसङ्खथे। काले गते = समये व्यतीते सति सम्प्रति / प्रस्थाने विक्लवा गतिर्यस्य तस्य-प्रस्थानविक्लवगतः = गमने, गमनारम्मे एव वा स्खलितपादस्य / मम-अवलम्बनाय = शरीरधारणायैव / जाता = सम्पन्ना / यष्टिं विना पदात्पदमपि चलितुं नाऽहं सम्पति शनोमीति भावः / [ कान्यलिङ्गम् / विशेषः। विभावना। समाहितं / छेकवृत्तिश्रुत्यनुप्रासाश्च / 'वसन्ततिलकं वृत्तम्' ] // 1 // __ अभ्यन्तरगताय = अन्तःपुरवर्तिने / अकालक्षेपार्ह = विलम्बाऽसहम् / स्वयमनुष्ठेयं = राज्ञा स्वयमनुष्ठेयं कार्यम् / (पाटान्त रेस्वं = मया निवेदनीयमिति वाऽर्थः) / देवाय = राशे निवेदयामि / किं पुनः = किं खलु / तत् = निवेदनीय कार्य / को मैं पहुँच गया हूँ। क्योंकि राज्य के अधिकारी (अफसर) के लिए यष्टि (छड़ी) का धारण करना आचार प्राप्त ( परम्परा से चला आता हआ एक नियम सा) है, इसी लिए राजा के महलों का अधिकार प्राप्त करते समय पहिले मैंने जिस यष्टि (छडी)को केवल नियम पालन के लिए ही धारण किया था. वही यष्टि बहुत समय बीत जाने पर और मेरे ( वृद्ध हो जाने से ) चलने-फिरने में असमर्थ हो जाने से, अब तो मेरे को सहारा देने वाली ( अवलम्बस्वरूप) एक आवश्यक वस्तु ही हो गई है // 1 // __अच्छा, अब मैं चलकर अन्तःपुर में गए हुए महाराज दुष्यन्त को विलम्ब करने के अयोग्य और उनके ही द्वारा स्वयं कर्तव्य आवश्यक कार्य की सूचना उन्हें देता हूँ। ( कुछ दूर चलकर ) हाँ, तो वह आवश्यक कार्य क्या है ? (कुछ विचार कर-) हाँ, याद आ गया,-'कण्व के शिष्य तपस्वी मुनि जन महाराज से मिलना चाहते हैं।