________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 319 राजा--अवहितोऽस्मि / शिष्यो--( हस्तमुद्यम्य-) भो राजन् ! विजयतां भवान् / . राजा--सर्वानभिवादये वः / शिष्यौ--स्वस्ति देवाय / राजा--अपि निर्विघ्नं तपः ? / शिष्यौ-- कुतो धर्मक्रियाविघ्नः सतां रक्षितरि त्वयि / तमस्तपति धर्मांशी कथमाविर्भविष्यति 1 // 15 // सन्देशः = वाचिकम् / अवहितः = सावधानः / श्रोतुमवहितोऽस्मीत्यर्थः / विघ्नेभ्यो निर्गतं. निर्गता विघ्ना यस्मात्तदिति वा--निर्विघ्नम् = विघ्नरहितम् / अपिरत्र प्रश्ने / __ कुत इति / सतां = साधूनाम् / सन्मार्गस्थानां / रक्षितरि = पालयितरि / त्वयि = त्वयि तिष्ठति सति / धर्मस्य क्रियाणां विघ्नः = धर्मानुष्ठानविघ्नः। कुतः = कथं भवेत् ? / नैव भवितुमर्हति / तथाहि-धर्माशौ = तीक्ष्णकिरणे भगवति सूर्ये / तपति–सति / तमः = अन्धकारः। कथमाविर्भविष्यति = कथमुद्भविष्यति ? / नैवाऽऽविर्भवति / अतश्च-हे राजन् ! त्वयि रक्षके जागरूके सति कथं धर्मक्रियासु विघ्नस्य शङ्काऽपि / सति सूर्ये न खलु ध्वान्तवार्तापीति भावः / [ दृष्टान्तः / अर्थापत्तिश्च ] // 15 // तपस्वियों की शास्त्रोक्त विधि से पूजा तो कर दी गई है / और इनके पास इनके गुरुजी का कुछ सन्देश है, उसको आप इनसे सुने / राजा-मैं सुनने के लिए सावधान हूँ। ( कहिए ) / दोनों शिष्य-( हाथ उठाकर ) हे राजन् ! आपकी सदा विजय हो।। राजा-मैं आप सबको प्रणाम करता हूँ, और आशीर्वादकी याचना करता हूँ। दोनों शिष्य---हे राजन् ! आपका कल्याण हो / राजा-आप लोगों की तपस्या में किसी प्रकार का कोई विघ्न तो नहीं है ? / अर्थात् आप लोगों की तपस्या तो ठीक से चलती है न ? / दोनों शिष्य-हे राजन् ! सजनों के रक्षक आपके रहते, हमारी तपस्या में विघ्न हो ही कैसे सकता है ? / क्योंकि प्रचण्ड किरण भगवान् दिवाकर के रहते भला अन्धकार का आविर्भाव ही कैसे हो सकता है ! // 15 //