________________ - ~ ~ ऽङ्कः]. अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 317 [ देव! प्रसन्नमुखा ऋषयो दृश्यन्ते / . राजा--(शकुन्तलां निर्वर्ण्य - ) अये ! अत्र केयमवगुण्ठनवती नाऽतिपरिस्फुटशरीरलावण्या / मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पाण्डुपत्राणाम् ? // 14 // प्रतीहारी--भट्टा ! कदूहलगम्भो पडिहदो ण मे तक्को पसरदि। दंस: णीमा उण से अकिदी लक्खीअदि / प्रसन्नमुखाः = प्रसन्नवदनाः / पाठान्तरे-प्रमन्नो मुखवर्णो येषान्ते प्रसन्नमुखवर्णाः = प्रसन्नाऽऽकृतिशोभिनः / विस्रब्धं काय येषान्ते--विस्रन्धकार्याः = अनुद्भटप्रशान्त कार्याः / उदारकार्याः / 'विस्रब्धस्तुद्भटेव्यर्थे शान्तविश्वस्तयोरपी' ति विश्वः / - केयमिति / पाण्डूनि च तानि पत्राणि, देषां पाडुपत्राणां = परिणामपाण्डुराणां जरठानां पत्राणां मध्ये / किसलयमिव = पल्लवमिव / कोमलपत्रमिव / तपोधनानां = तापसानामेषाम् / मध्ये-इयं = पुरो विलसन्ती। अवगुण्ठनवतीपटप्रावृतसर्वावयवा / अत एव-न अतिपरिस्फुटं शरीरस्य लावण्यं यस्याः-सा = अनतिविभाव्यमानाऽङ्गलावण्यविभवा ललना / अत्र का= कास्वित् / का वा भवेत / [ उपमा / काव्यलिङ्गम् / आर्या ] // 14 // राजा-(शकुन्तला की ओर देखकर ) हैं ! यहाँ इन ऋषियों के साथ, अपरिस्फुट ( छिपी हुई ) शरीर कान्तिवाली, उभडते हुए सौन्दर्य, लावण्य और यौवन वाली, घुघट निकाले हुए, ऋषियों के बीच में खड़ी हुई–पीले पुराने पत्तों के बीच में कोमल नवीन पल्लव ( कोंपल ) की तरह शोभायमान-यह सुन्दरी युवति स्त्री कौन है ? // 14 // * प्रतीहारी-हे प्रभो ! इसके विषय में मुझे भी कौतूहल हो रहा है, मेरा भी तक ( मेरी भी बुद्धि ) यहाँ काम नहीं दे रहा है। हाँ, इसकी आकृति तां अवश्य सुन्दर और दर्शनीय तथा आकर्षक मालूम होती है।