________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 297 नाऽतिश्रमापनयनाय, यथा श्रमाय, . . राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवाऽऽतपत्रम् // 5 // (नेपथ्ये-) वैतालिको-जयति जयति देवः। रात्रिन्दिवं चिन्तावैक्लव्यादिकञ्च / एनं = राजानं / क्लिश्नाति = पीडयति / राज्यस्य फलमिच्छाविनोदमात्रं, परं तद्रशगवर्द्धनादौ भूरिप्रपञ्चो, महान् आयासोऽपि च भवतीति यावत् सुखं राज्ये नास्ति, तावत्तत्र राज्यरक्षणे दुःखमेवेति भावः / ___ अतश्च-स्वहस्तेन धृतो दण्डो यस्य तत्-स्वहस्तधृतदण्डं = स्वकरकलितदण्डम् / आतपात्रायते इत्यातपत्रमिव = छत्रमिव, राज्यं-यथा श्रमाय = याक् श्रमजनकं भवति / तथा नातिश्रमाऽपनयनाय = तथा न श्रमविगमाय, सुखाय च भवति / राज्ये यथा श्रमस्तथा न सुखं, नैव विश्रान्तिश्चेत्याशयः। [ परिसङ्ख्या / उपमा / काव्यलिङ्गम् / अनुप्रासः / 'वसन्ततिलका वृत्तम्' ] // 5 // . वैतालिकौ = द्वौ वन्दिनौ / तल्लक्षणमुक्तं भावप्रकाशे___ 'तत्तत्प्रहरकयोग्यै रागैस्तत्कालवाचिभिः श्लोकैः / सरभसमेव वितालं गायन्वैतालिको भवति / / ' इति / से तो केवल मन की इच्छा मात्र ही शान्त होती है, परन्तु मिले हुए राज्य की रक्षा करना तो बड़ा ही कठिन, एवं कष्टप्रद कार्य है। अतः जैसे मनुष्य को (छाते की डांडी हाथ में पकड़े रहने से-) छाते से जितना सुख नहीं पहुँचता है, उससे अधिक कहीं उसे छाते को पकड़े रहने से कष्ट होता है, उसी प्रकार राज्य भो जितना सुख नहीं देता है, उससे अधिक वह परिश्रम व कष्ट ही देता है / अर्थात् जैसे छाते के दण्ड ( डांड़ी ) को पकड़े रहने से परिश्रम ही ज्यादा होता है, उसकी अपेक्षा मनुष्य को छाते से सुख तो कम ही मिलता है, वैसे ही राज्य की प्राप्ति से जितना सुख नहीं मिलता है, उससे अधिक चिन्ता कष्ट व परिश्रम ही उससे होता है // 5 // - [नेपथ्य में-] स्तुतिपाठक दो वैतालिक ( बन्दो-चारण-भाट )-महाराज की जय जयकार हो।