________________ 308 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [पञ्चमो कञ्चकी-( उपसृत्य- ) जयति जयति देवः / एते खलु हिमगिरेरुपत्यकाऽरण्यवासिनः कण्वसन्देशमादाय सस्त्रीकास्तपखिनः सम्प्राप्ताः / श्रुत्वा देवः प्रमाणम्।। राजा-( सविस्मयं- ) किं-'कण्वसन्देशहारिणः, सस्त्रीकास्तपस्विनः / कञ्चकी-अथ किम् / राजा-तेन हि विज्ञाप्यतां मद्वचनादुपाध्यायः सोमरातः, उद्विग्नताम् / अस्मृतिनिमित्तं = शापकृतशकुन्त लाविस्मरणहेतुकं / रूपयति = नाटयति / यथा कश्चन किमपि विस्मृत्य चिन्तयति, तथा रङ्गेऽभिनीय दर्शयति / उद्वेगं नाटयतीत्यर्थः। उपत्यकायां = पर्वतसन्निहितप्रदेशे, यदरण्यं तत्र वसन्ति तच्छीलाः / एते खलु = बहिरिप्रदेशे स्थिताः। श्रत्वा देवः प्रमाणम् = एतदाकर्ण्य भवानुचितं कत्तव्यं चिन्तयितुं प्रभुः / कण्वस्य सन्देशं हरन्ति तच्छीला:-कण्वसन्देशहारिणः = महर्षिकण्ववाचिकसन्देशप्रापकाः। विज्ञाप्यतां = सूच्यताम् / कथ्यतां / सोमरातः = तन्नामा / उपाध्यायः = कञ्चकी-(निकट में आकर ) महाराज की जय जयकार हो / महाराज! हिमालय की तराई के वन में रहने वाले ये तपस्वी लोग भगवान् कण्व मुनि जी का कोई सन्देश लेकर, दो स्त्रियों के साथ द्वार पर स्थित हैं। यह सुनकर मागे आप मालिक हैं / अर्थात्-आप जैसा उचित समझें वैसा करें। राजा-(आश्चर्य चकित हो) क्या कहा-कण्व का सन्देश लेकर सियों के सहित तपस्वी आए हैं ? / कञ्चकी-जी हाँ पृथ्वीनाथ ! यही बात है। राजा-तो फिर तुम मेरी ओर से उपाध्याय ( ओझा, या वैदिक विद्वान्, राजपुरोहित ) सोमरातजी से जाकर कहो, कि-इन आश्रमवासी तपस्वियों का श्रौत ( वैदिक ) विधि से यथोचित अतिथि सत्कार ( अर्ध्य, पाद्य, मधुपर्क आदि से पूजन ) करके, वे स्वयं इन्हें मेरे पास लावें। और मैं भी तपस्वियों से मिलने के योग्य स्थान पर ( अग्निहोत्रशाला में ) जाकर उनकी प्रतीक्षा करता हूँ।