________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 311 प्रतिहारी-देवस्स भुअदण्डणिव्वुदे अस्समपदे कुंदो एवं ? / किन्तु 'सुचरिताहिणन्दिणो इसीओ देवं सभाजइदु आअदे' त्ति तक्केमि / [ देवस्य भुजदण्डनिवृते आश्रमपदे कुत एवंम / किन्तु 'सुचरिताऽभिनन्दिन ऋषयो देवं सभाजयितुमागता' इति तर्कयामि / (ततः प्रविशतो गौतमीसहितौ शकुन्तलामादाय कण्वशिष्यौ, पुरतश्चैषां पुरोहित-कञ्चुकिनौ ) / 'विष्टम्भः प्रतिबन्धे स्यादिति मेदिनी / इति = इत्येवम् / आरूढाः= आकलिता बहवः प्रतळ यस्मिस्तत्-आरूढ बहुप्रतक = नानातर्काऽऽकुलितम् / मे = मम। मनः= मानसम् / अपरिच्छेदेनाऽऽकुलम् = अनिर्णयादुत्कलिकाऽऽकुलितम् / 'वर्त्तते' इति शेषः। [काव्यलिङ्गम्। 'शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्' ] // 10 // भुजदण्डेन = बाहृदण्डेन / तत्पालनेन / निर्वृते = सुखिते / आश्रमपदे = तपोवने / एवम् = इत्थम् / अनिष्टम् / कुतः = कथं सम्भाव्यते / सुचरितमभिनन्दन्ति तच्छीला:-सुचरिताभिनन्दिनः = धर्माचरणशीलसदृत्तभवादृशनृपानुरागिणः / धर्मप्रवणजनप्रियाः / सभाजयितुं = पूजयितुम् / आशीभिरभिनन्दयितुम् / भवन्तं श्लाघितुमेव / पुरतः = अग्रे। पुरोहितः = सोमरातोपाध्यायः / कञ्च की = सौविदल्लः / वासी ऋषि, मुनि या हरिण, मयूर आदि किन्हीं प्राणियों के प्रति किसी राजपुरुष ने या किसी दुष्ट ने कुछ अनुचित आचरण किया है ? / अथवा-मेरे को नहीं मालूम ऐसे किसी कारण से क्या वनस्पति एवं लता गुल्मों की ( अन्न, फल, मूल आदि की ) फसल ही खराब हो गई है। इस प्रकार मनमें उठनेवाले नाना प्रकार के तर्कों से, और शङ्काओं से, तथा अनिश्चय से मेरा मन व्याकुल हो रहा है // 10 // प्रतीहारी–महाराज की भुजाओं से सुरक्षित होने से सब प्रकार से सुखी आश्रमों में इस प्रकार के विघ्न तो हो ही कैसे सकते हैं। परन्तु महाराज के सुन्दर चरितों ( सुरक्षा करने आदि गुणों ) का अभिनन्दन ( श्लाघा ) करने के लिए ही ये ऋषि लाग महाराज की प्रशंसा एवं सत्कार करने के लिए आए होंगे-मैं तो ऐसा हो सोचती हूँ। [ शकुन्तला को साथ लेकर गौतमी सहित कण्व शिष्यों का प्रवेश / इनके आगे आगे पुरोहित और कञ्चकी चल रहे हैं ] / 1 'कुत एतत्' पा० /