________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 293 भोः ! चित्रमेतत् क्षणात्प्रबोधमायाति, लङ्घयते तमसा पुनः / निर्वास्यतः प्रदीपस्य शिखेव जरतो मतिः // 2 // ( परिक्रम्याऽवलोक्य च-) एष देवःप्रजाः प्रजाः स्वा इव तन्त्रयित्वा, निषेवते श्रान्तमना विविक्तम् / यूथानि सञ्चार्य रविप्रतप्तः, शीतं गुहास्थानमिव द्विपेन्द्रः // 3 // विस्मृतवानस्मीत्याशयः। भाः--इति विषादे / 'भोस्तु सम्बोधनविषादयो रिति मेदिनी / चित्रं = विचित्रमेतत् / वैचित्र्यमेवाह क्षणादिति / निर्वास्यतः = निर्वाणं यास्यतः। विनाशोन्मुखस्य / प्रदीपस्य = दीपस्य / शिखेव = अर्चिरिव / जरतः = वृद्धस्य, प्रकृते च मम / 'प्रवयाः स्थविरो जरन्' इत्यमरः / मतिः = बुद्धिः / क्षणात् = सहसा। कदाचित्त / प्रबोधं = दीप्तिम् / उन्मेषम् / आयाति = प्राप्नोति / पुनः = क्षणादेव च / कदाचित् / तमसा = अन्धकारेण / अज्ञानेन च / लङ्घयते = अभिभूयते / [श्लेषः / उपमा / अनुप्रास:] // 2 // _ 'एष देवः' इति वाक्यं-श्लोकेनाग्रिमेण सह सम्बध्यते। प्रजा इति। यूथानि = अहो ! यह बड़े ही आश्चर्य की बात है, कि बुझते हुए दीपक की शिखा (लौ) की तरह ही वृद्ध मनुष्य की (मेरी) बुद्धि भी कभी तो क्षणभर में प्रबद्ध = कार्यक्षम हो जाती है, और कभी क्षणभर में अन्धकार से ( अज्ञान से ) आच्छन्न हो जाती है। अर्थात्-जैसे बझते हुए दीपक की लौ कभी मन्द पड़ती है, और कभी तेज हो जाती है, इसी प्रकार मेरी बुद्धि भी क्षणभर में लुप्त और क्षणभर में प्रबुद्ध हो जाती है। इसी लिए मैं अपनी बातों को प्रायः भूल जाता हूँ, और बहुत प्रयत्न करने पर ही फिर उन्हें स्मरण कर पाता हूँ // 2 // (कुछ चलकर, सामने देखकर-) ये महाराज दुष्यन्त (विराज रहे हैं। ये महाराज दुष्यन्त ) अपने पुत्र की तरह ही प्रजाओं का पालन व नियमन